◆ श्रीविद्या अंतर्गत अद्वैत वेदान्त का पथ ◆
श्रीविद्या साधक को श्रीविद्या के विस्तीर्ण क्षेत्र में अपना व्यक्तिगत अभ्यास रखना चाहिए। अपने आपको एक नियम-शिस्त में बांधना चाहिए ।
सिर्फ अद्वैत अद्वैत बोलने से साध्य नही हो जाता।
श्रीविद्या में , ” अद्वैत वेदान्त ” वेदान्त की एक शाखा।
” अहं ब्रह्मास्मि ” अद्वैत वेदांत यह भारत में प्रतिपादित दर्शन की कई विचारधाराओँ में से एक है, जिसके आदि शंकराचार्य पुरस्कर्ता थे।
भारत में परब्रह्म के स्वरूप के बारे में कई विचारधाराएं हैँ। जिसमें द्वैत, अद्वैत या केवलाद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत जैसी कई सैद्धांतिक विचारधाराएं हैं।
जिस आचार्य ने जिस रूप में ब्रह्म को जाना उसका वर्णन किया। इतनी विचारधाराएं होने पर भी सभी यह मानते है कि भगवान ही इस सृष्टि का नियंता है।
श्रीविद्या साधना में अद्वैत विचारधारा के संस्थापक आदि शंकराचार्य हैं, जिसे शांकराद्वैत या केवलाद्वैत भी कहा जाता है।
आदिशंकराचार्य श्रीविद्या के साधक थे और आचार्य भी थे । अद्वैतता तक पहुँचने वाले एक पवित्र आत्मा , जो आजभी बद्रीनाथ की गुप्त गुफाओं में सूक्ष्म आत्म स्वरूप बिंदु में साधनारत है ।
( इस गुप्त विषय में , महावतार बाबाजी ने अपने शिष्य श्रीविद्यानंद को इस गुफा में आदिशंकराचार्य से अद्वैत श्रीविद्या का ज्ञान प्राप्त करने भेजा था , उसका विषय किसी ओर लेख में देंगे । )
श्रीविद्या साधना करते करते , शंकराचार्य यहां तक पहुँचे थे कि संसार में ” ब्रह्म ” ही सत्य है। बाकी सब मिथ्या है (ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या)।
सामान्य जीव केवल अज्ञान के कारण ही ” ब्रह्म “को नहीं जान पाता जबकि ब्रह्म तो उसके ही अंदर विराजमान है। आजकल इसी विषय मे गलत श्रीविद्या साधना सिखाने वाले गुरु , सिर्फ ब्रम्ह – ब्रम्हांड – ब्रम्हज्ञान इन शब्दों के प्रयोग से लोगो को बेवकूफ बनाते हैं।
जबकि ऐसे लोगो को ब्रम्ह का विस्तार मूलाधार से सहस्रार ओर सहस्रार से ओर कितना दूर है , ओर इसके अंदर कितने आयाम है (14भुवनों को छोड़ ) इसका भी ज्ञान नही होता । श्रीविद्या आप किसीसे सिख रहे है तो अपने गुरु से इस विषय में ज्ञान लेना जरूरी है।
अन्यथा आपको मिला जीवन बर्बाद ।
आदि शंकराचार्य अपने ब्रह्मसूत्र में “अहं ब्रह्मास्मि” ऐसा कहकर अद्वैत सिद्धांत बताया है।
वल्लभाचार्य अपने शुद्धाद्वैत दर्शन में ब्रह्म, जीव और जगत, तीनों को सत्य मानते हैं, जिसे वेदों, उपनिषदों, ब्रह्मसूत्र, गीता तथा श्रीमद्भागवत द्वारा उन्होंने सिद्ध किया है।
अद्वैत सिद्धांत चराचर सृष्टि में भी व्याप्त है।
जब पैर में काँटा चुभता है तब आखोँ से पानी आता है और हाथ काँटा निकालनेके लिए जाता है। ये अद्वैत का एक उत्तम उदाहरण है।
शंकराचार्य का ‘एकोब्रह्म, द्वितीयो नास्ति’ मत था। सृष्टि से पहले परमब्रह्म विद्यमान थे। ब्रह्म सत और सृष्टि जगत असत् है।
शंकराचार्य के मत से ब्रह्म निर्गुण, निष्क्रिय, सत-असत, कार्य-कारण से अलग इंद्रियातीत है।
ब्रह्म आंखों से नहीं देखा जा सकता, मन से नहीं जाना जा सकता, वह ज्ञाता नहीं है और न ज्ञेय ही है, ज्ञान और क्रिया के भी अतीत है।
श्रीललिता परमेश्वरी के माया के कारण जीव ‘अहं ब्रह्म’ का ज्ञान नहीं कर पाता। आत्मा विशुद्ध ज्ञान स्वरूप निष्क्रिय और अनंत है, जीव को यह ज्ञान नहीं रहता।
श्रीविद्या साधक को जरूरी है की उपनिषद , वेदांत इनके हर एक विषय मे ग्रुप में अभ्यास करें , चर्चा करें ।
गलत संघटना-संस्था बनाकर समय बर्बाद न करे ।
श्रीविद्या में पहले व्यक्तिगत आत्मा के कल्याण की बात होती है , फिर दूसरे की । ओर श्रीविद्या का ज्ञान ही इतना विस्तीर्ण है कि उसमे से असल ज्ञान को आत्मसात कर द्वैत से अद्वैतता को साधना अत्यंत मुश्किल ।
क्योंकि , आत्माए जन्म लेती रहती है । पर आपको हर समय मनुष्य जन्म मिले , इस वहम में न रहे । मिले जीवन का उपयोग सही ज्ञान के तलाश में रखें ।
ध्रुव, प्रह्लाद, वाल्मीकि, अंगुलिमाल, बिल्वमंगल, अजामिल आदि अगणित व्यक्ति अवांछनीय केंचुल को बदलकर देखते-दिखाते पशु से मनुष्य और मनुष्य से देवता बने हैं। सामान्य परिस्थितियों में जन्में और पले व्यक्ति मूर्धन्य महामानवों में गिने गये हैं।
भीष्म पितामह शर शैया पर पड़े हुए धर्मोपदेश दे रहे थे, तब द्रौपदी ने पूछा—‘‘देव, जब मुझे भरी सभा में नग्न किया जा रहा था तब आपने कौरवों को यह उपदेश क्यों नहीं दिये?’’ वे बोले—‘‘उन दिनों मेरे शरीर में कुधान्य से उत्पन्न रक्त बह रहा था, अस्तु बुद्धि भी वैसी ही थी। अब घावों के रास्ते वह रक्त निकल गया और मेरी स्थिति सही सोचने एवं सही परामर्श देने जैसी बन गई है।’’ ……. आध्यत्म का रास्ता आगे जाकर भीषण होता हैं ।
द्वैत को देखे बिना अद्वैत को पाना मुश्किल है ।
अद्वैत अध्यात्म तत्वज्ञान का प्रथम निर्धारण है—आत्मशोधन, आत्म–परिष्कार अर्थात् संचित मल, आवरण, विक्षेपों का, कषाय-कल्मषों का, संचित कुसंस्कारों का निराकरण, उन्मूलन।
इसे रंगाई से पूर्व की धुलाई, बुवाई से पूर्व की जुताई कह सकते हैं। हम समस्याओं, चिंताओं, विपत्तियों के घटाटोप, दृष्टिकोण की विकृति, आदतों की विपन्नता तथा गतिविधियों में घुसी हुई अवांछनीयता के कारण जीवन-आकाश पर छाते, उपल वृष्टि से वर्तमान को संकटग्रस्त तथा भविष्य को अन्धकारपूर्ण बनाते हैं। इस विपत्ति का निराकरण आत्म-शोधन के बिना और किसी प्रकार सम्भव नहीं हो सकता है।
आत्मशोधन को तप कहते हैं और आत्म-क्षेत्र में उच्चस्तरीय विशिष्टताओं साधना के समावेश को योग साधना। इन्हीं दो कदमों को क्रमिक गति से बढ़ाते हुए जीवन लक्ष्य तक पहुंचाने वाले राजमार्ग पर यात्रा-प्रवास निर्बाध रूप से सम्पन्न होता है।
आदिशंकराचार्य की आयु 16 साल ही थी , वेद व्यास जी ने काशी में प्रगट होकर उनको अपने मे से 16 साल ओर देकर शक्ति का परिचय करने को कहा और आचार्य गौड़ पाद के पास भेजा …. श्रीविद्या साधना के लिए ।
श्रीविद्या पंचदशी के जाप से मोक्ष मिलेंगा यह अफवा निकाल दे । उससे भी आगे के ज्ञान और साधना है , उनका परिचय लेकर आगे बढ़ना है ।
आदिशंकराचार्य पंचदशी को पार करके आगे के नाद को पकड़ के अद्वैत में आरोहण कर चुके थे। इसलिए उनोने अद्वैतता सिद्धांत निरूपण किया । अगर वो चाहते तो अपने लाखो शिष्य बनाकर श्रीविद्या साधना फैला सकते थे। पर उनोने ऐसा नहीं किया ।
क्योंकि , श्रीविद्या एक पवित्र साधना जो गुरु के सानिध्य में बैठ , गुरु से रूबरू बातचीत कर ज्ञान को लेकर लेनी चाहिए । इसलिए आदिशंकराचार्य जी ने श्रीविद्या में चतुर्याग पद्धति का अवलंब किया ।
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