◆ श्रीविद्या अंतर्गत अनच्क कला की व्याख्या ◆
श्रीविद्या साधना के अंतरंग में घुसने के लिए वैचारिक क्षमता बहुत विस्तरित चाहिए । बहुत सारे लोग श्रीविद्या में कुण्डलिनी चक्रों पर पंचदशी का जाप करते है , परन्तु इतने सालों तक जाप करने पर भी कुण्डलिनी के किस स्थान पर क्या क्या होता है और श्रीविद्या में उसका ज्ञान कैसे लिया है ……. उसपर सोच बहुत कम लोग लगाते हैं।
श्रीविद्या साधना इतने सालों तक ये सब करने पर भी श्रीविद्या के अंतर्गत ब्रम्हांड के विषय में ओर कुण्डलिनी के विषय मे जो आवश्यक ज्ञान है , वो अंशतः भी समझ नही आता ।
आज हम उसी में से एक ” अनच्क कला ” के विषय मे समझेंगे ।
ब्रम्हांड का विस्तार समझने के लिए श्रीराम शर्मा आचार्य के एक वाक्य को देखते हैं ।
रूस के सुप्रसिद्ध खगोल-विशारद आई.एस. शक्लोव्स्की ने “इण्टेलीजेन्ट लाइफ इन दि यूनीवर्स” नामक पुस्तक न लिखी होती तो तत्वदर्शन का परलोकवाद सिद्धान्त पूरी तरह धूल-धूसरित हो गया होता।
अनेक तर्कों और वैज्ञानिक सिद्धान्तों के आधार पर यह लिखा है कि-”हमारी आकाश गंगा क्षेत्र में जिसमें कि अपना समस्त सौर मंडल भी आता है , लगभग 10 लाख ऐसे ग्रह हैं जहाँ कि धरती के समान ही बुद्धिमान और सभ्य लोग निवास करते हैं।
इनमें से कई लोक तो इतने सुन्दर हैं कि उनकी तुलना स्वर्ग से की जा सकती है।”
जीवात्मा के अन्य लोकों में गमन की बात को अन्धविश्वास माना जाये तो विज्ञान की रक्त धारणा को भी अज्ञान ग्रस्त काल्पनिक उड़ान ही कहा जायेगा ।
क्योंकि ब्रह्माण्ड कितना अनंत और समीप है उसकी कुछ यथार्थ जानकारी अभी तक भी पूर्ण सत्य नहीं मिल पाई।
हम जिस सौर मंडल में रहते हैं वह “स्पाइल” नामक आकाश गंगा से प्रकाश पाता है और इस आकाश गंगा की चौड़ाई 100000 (एक लाख) प्र्रकाश वर्ष है एक प्रकाश वर्ष अनुमानतः 6000000000000000000 मील की दूरी को कहते हैं ।
तात्पर्य यह है कि समस्त आकाश गंगा वाले ब्रह्माण्ड की दूरी इससे भी 1 लाख गुना 600000000000000000000000 मील की है।
श्री श्क्लोव्स्की के अनुसार इस दूरी में बसे बौद्धिक शक्ति वाले लोगों वाले उन ग्रहों की परस्पर दूरी 300 प्रकाश वर्ष अर्थात् 1800000000000000000000 मील की दूरी पर है।
यह सब बताने का तात्पर्य यह है कि , श्रीविद्या साधको को कुण्डलिनी से सूक्ष्म जगत में जाकर इन चीजों को महसूस करने की क्षमता विकसित करना ।
उसके लिए पहले कुण्डलिनी के हर विषय को समझो , जो हमारे पूर्वज ऋषीं यो ने लिखे है , ओर ऐसे अनेको ग्रंथो में विचार संपादित किए हैं ।
सार्धत्रिवलया भुजगाकारा कुलात्मिका कुण्डलिनी मूलाधार में सोई रहती है। जाग्रत होने पर यह सुषुम्णा मार्ग से षट्चक्रों का भेदन कर सहस्रार स्थित अकुलचक्र में विराजमान शिव के साथ सामरस्य लाभ करती है।
षट्चक्रों और उनमें विद्यामान वर्णों का पूर्णानन्द के षट्चक्रनिरूपण के षष्ठ प्रकाश में और सौंदर्यलहरी की लक्ष्मीधरा टीका में (श्लो. 36-41) तथा अन्यत्र भी विशद विवेचन मिलता है।
नाडीचक्र प्रभृति षट्चक्रों का निरूपण नेत्रतंत्र (7/28-29) में भी है।
विज्ञान भैरव में बारह चक्रों या क्रमों की चर्चा आई है। इन चक्रों की मूलाधार या हृदय से लेकर द्वादशांत पर्यन्त भावना की जाती है।
यहाँ आपको द्वदशान्त का अर्थ कुण्डलिनी में क्या है ?
श्रीविद्या में इसका अभ्यास जरूरी है।
मूलाधार में जैसे कुण्डलिनी का निवास है, उसी तरह से हृदय में भी सार्धत्रिवलया प्राणकुण्डलिनी रहती है।
मध्य नाडी सुषुम्णा के भीतर चिदाकाश (बोधगमन) रूप शून्य का निवास है। उससे प्राणशक्ति निकलती है। इसी को अनच्क कला भी कहते हैं।
इसमें अनच्क (अच्-स्वर से रहित) हकार का निरंतर नदन होता रहता है।
यह नादभट्टारक की उन्मेष दशा है, जिससे कि प्राणकुण्डलिनी की गति ऊर्ध्वोन्मुख होती है, जो श्वास-प्रश्वास, प्राण-अपान को गति प्रदान करती है और जहाँ इनकी एकता का अनुसंधान किया जा सकता है।
मध्य नाडी स्थित बिना क्रम के स्वाभाविक रूप से उच्चरित होने वाली यह प्राण शक्ति ही अनच्क कला कहलाती है।
अजपा जप में इसी का स्फुरण होता है।
प्राण और अपान व्यापार से भिन्न, श्वास-प्रश्वास प्रक्रिया से अलग, स्वाभाविक रूप से निरंतर चल रहे प्राण (ह्दय) के स्पन्दन व्यापार (धड़कन) को ही यहाँ अनच्क कला कहा गया है। स्पन्दकारिका में प्रतिपादित स्पंद तत्त्व यही है। वामननाथ ने अद्वय संपत्ति वार्तिक में इसका वर्णन किया है। नेत्रतंत्र (सप्तम अधिकार) में सूक्ष्म उपाय के प्रसंग में प्राण – चार के नाम से इसकी व्याख्या की गई है। अब अजपा जाप का सिमरन लगाने के लिए साधना की तीव्रता बहुत जरूरी है ।
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