अवधूत उपनिषद Part 1

।। श्रीविद्या अंतर्गत उपनिषदों का अभ्यास ।।
अवधूत उपनिषद पार्ट १

ॐ नमस्ते मित्रो ,
श्रीविद्या संजीवन साधना सेवा पीठम , ठाणे में आपका स्वागत हैं।
पिछले दत्त पूर्णिमा पर मुझे श्रीदत्तात्रेय जी का प्रमुख जगह कोल्हापुर में श्रीविद्या तथा श्री दत्तात्रेय जी के साधना पर सत्संग करने का मौका मिला । यह सत्संग अवधूत नित्यानंद मुक्तानंद साईकाका तथा शिरोल कोल्हापुर के श्री नंदू अण्णा महाराज के परंपरा के साधको ने लाभ लिया ।

तभी मुझे एक व्यक्ति ने अवधूत और अन्य साधु संतों में क्या अंतर है , तथा आजके जमाने में कोई अवधूत इस पृथ्वी पर अस्तित्व में हैं क्या ? इस पर प्रश्न पूछा । तो उसी विषय पर आज हम उपनिषदों के श्रृंखला में एक महत्वपूर्ण उपनिषद अवधूत उपनिषद की चर्चा करेंगे ।

मित्रों , जबतक मोक्षी गुरु आपको न मिले तबतक आप कितने भी गुरु बदल सकते हैं। महाविद्या अघोर शास्त्र श्रीविद्या विषयो मात्र आगे बढ़ने के लिए गुरु से आज्ञा की जरूरत होती हैं ।

अवधूत उपनिषद की रचना मुनि सांकृति और श्री दत्तात्रेय जी की चर्चा है।

श्लोक : ?
अथ ह सांकृतिर्भगवन्तमवधूतं दत्तात्रेयं परिसमेत्य पप्रच्छ। भगवन्कोऽवधूतस्तस्य का स्थितिः किं लक्ष्म किं संसरणमिति।

तं होवाच भगवो दत्तात्रेयः परमकारुणिकः ॥ अक्षरत्वाद्वरेण्यत्वाद्धूतसंसारबन्धनात्। तत्त्वमस्यादिलक्ष्यत्वावधूत इतीर्यते ॥

अर्थ : मुनि सांकृति जी श्री दत्तात्रेय जी को पूछते हैं , हे प्रभु दत्तात्रेय जी अवधूत कौन हैं? अवधूत की स्थिति , अवधूत का लक्षण कैसा होता हैं ? अवधूत का सांसारिक जीवन व्यवहार कैसा होता हैं?

अर्थात मित्रों , जो आत्मा अवधूत अवस्था मे पहुची हैं , वह कैसी होगी? उसका आचरण ? उसकी संगती? उसका हावभाव? उसका रहनसहन कैसा होगा? उनकी बोलचाल क्या होगी? क्या उसका भी कोई संसार होता हैं? उसका विवाह पत्नी बच्चे होते हैं? प्रश्नों का वास्तविक ज्ञान जरूरी हैं।

  • उसी प्रश्न पर दत्तात्रेय कहते हैं , हे सांकृति ! जो आत्मा ” अक्षर ” ब्रम्ह युक्त तथा उसको जानकर उसका वरण किया हुआ है , उस अक्षरब्रम्ह के आचरण से युक्त है , जो तत्वमसि शब्द का अर्थ समझता हो । जो सभी सांसारिक व्यवहारों से रहित हो । उसे ही अवधूत (अक्षर का ‘अ’, वरेण्य का ‘व’, धूतसंसारबन्धन का ‘धू’ तथा तत्त्वमस्यादि लक्ष्य का ‘त’ लेने से ‘अवधूत’) कहा जाता है ।

मित्रो दत्तात्रेय जी जो अवधूत विषय पर शब्द कहे है उसको पहले मूल तक समझना जरूरी हैं, अन्यथा पढ़ने वाला अवधूत पद की तुलना किसी आम व्यक्ति या खुदके गुरु से करना शुरुआत करेगा ।
इसलिए मित्रो , यह लेख वैसे भी आम लोगो के लिए नहीं है बल्कि जो विवेकबुद्धि जागृत रखके क्या सत्य क्या असत्य सोचते है उनके लिए ही हैं।

एक समय था , मेरे पास श्रीविद्या सीखने के अवधूत नित्यानंद जी के आचारीजी का पुत्र आते थे। वो बताते थे जब हमारी बात होती थी , की अवधूत नित्यानंद जी के सेवा सुश्रुषा खाना पीना आदि विषयों के लिए एक ब्राम्हण परिवार की नियुक्ति की थी वही मेरे मातापिता है । जब अवधूत नित्यानंद जी शरीर की समाधी 1961 में हुई तब उससे पहले उनोने अपने दो दांत रखने के लिए दिए थे।
मैने उनसे पूछा की , कभी अवधूत नित्यानंद जी किसीको मंत्र दीक्षा आदि दी थी , किसीको उस विषय पर मार्गदर्शन करते थे ?
तब उनोने कहा , अवधूत नित्यानंद जी ने कभी कोई भगवान देव या मंत्र कभी कोई शब्द तक पुकारा नहीं था। और कभी सुना भी नहीं। लोग मिलने आते थे उतना ही । कभी कोई माया जमा नहीं कि या कोई शिष्य भक्त नहीं बनाए ।

अवधूत विषय को समझने के लिए पहले लोगो के मन में काफी भ्रम होते हैं और उसे खुद कुछ लोग अपने अविवेकी बुद्धि के कारण बढावा देते हैं , इसलिए एक कथा द्वारा आध्यात्मिक जगत का एक भ्रम निकालता हु ।

एक शराबी रात देर से घर लौटा। रास्ते में बड़ी झंझटें आईं। दीवालों से टकरा गया , चलते चलते लोगों से टकरा गया ,राह पर खड़े भैंस-बैलों से भी टकरा गया। बार-बार उसने अपनी लालटेन उठा कर देखी; उसने कहा: बात क्या है!
साथ में लालटेन लिए है। फिर एक नाली में गिर पड़ा–अपनी लालटेन सहित; कोई उसे उठाकर उसके घर पहुंचा दिया ।
दूसरे दिन सुबह बैठा है , कुछ-कुछ धुंधली-धुंधली याद आ रही है रात की। सिर में भी चोट है; पैर में भी चोट है। वह सोच रहा है कि मामला क्या हुआ!
लालटेन मेरे हाथ में थी, फिर भी मैं इतना टकराया क्या? और तभी शराबघर का मालिक उसके सामने आया और उसने कहा कि भाई, यह तुम्हारा लालटेन लो। तुम कल शराबघर में छोड़ आए थे। तुम मेरा तोते का पिंजड़ा उठा लाए। मेरा तोते का पिंजड़ा कहां है?
अब शराबी आदमी; आश्चर्य हो गया। लालटेन जैसा ही उसने क्या उठाके लाया होगा–तोते का पिंजड़ा। पकड़ने में भी लालटेन जैसा मालूम पड़ा होगा। चल पड़ा! घर ।
बेहोशी में तुम जो पकड़ लेते हो, उससे बनती है परंपरा। होश में तुम जो जानते हो, वह है धर्म।
धर्म की कोई परंपरा नहीं होती। परंपरा में कोई धर्म नहीं होता।

जैसे श्रीविद्या दीक्षाएं काफी लोग समाज में लेते हैं , भोग मोक्ष के नाम पर और दत्तात्रेय जी की परंपरा के नामपर । परंतु , दत्तात्रेय जी ने उनकी साधना ही गुरूपादुका और महागणपति से शुरू की थी … पर आजके लोगो को दत्तात्रेय जी का नाम सिर्फ परंपरा में चाहिए उनकी सिख नहीं । शिव पहले ही कहते है मंत्र मोक्ष नहीं देते फिर श्रीविद्या मोक्ष कैसे देंगी ।
विवेकबुद्धि के अभाव ने देखिए भारत की अवस्था क्या कर दी ।

मित्रों , जिस शब्दो को अवधूत दत्तात्रेय जी ने स्पष्ट कहा है , ” तत्वमसि ” ” अक्षरतत्व ” जानने वाला और “सांसारिक जीवन” से परे कहा है , वह क्या है? इसमें ही रहस्य छुपा हुआ है। इसको हम अगले लेख में देखेंगे ।

धन्यवाद ।
क्रमशः

~ परमेश्वरी निलयम ~
श्रीविद्या पीठम , ठाणे

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