◆ श्रीविद्या श्रीपरमशिव की कृत्या साधना ◆
भाग : २
शिव जी की पत्नी सती को दक्ष ने यज्ञकार्य में नहीं बुलाया । समस्त देवता , ऋषियों में ओर परिवार के समस्त सदस्यों में सती का अपमान हुआ , सती सह नही पाई । क्रोध में आकर यज्ञ में अपने शरीर को जला दिया । ………… वहिपर सती के साथ आया हुआ शिव जी का सैन्य भी था । उनोने दक्ष पर आक्रमण किया तब , दक्ष की सेना से वो हार रहे थे। ………. शिव को जब यह पता चला , तो उनके दर्द का कोई ठिकाना न था , वो दक्षयज्ञ स्थली पर आए , ……. जलते हुए सती के शरीर को उठाया , वो इतने अत्याधिक क्रोधित हुए की , ……….. इतना बड़ा अपमान कि मेरी पत्नी जल गई और मैं कुछ नही कर पाया और क्रोध की चरम सीमा न थी।
उनोन्हे वीरभद्र के साथ एक भयानक कृत्या भी प्रगट की , …….. जिसने यज्ञ कार्य मे उपस्थित एक एक ज्ञानी ऋषि तथा बड़े बड़े देवता ओ के कमर में लाथ मारी । ……….. ओर वे कुछ भी न कर सके । इसीमे कहा जाता है कि कृत्या ने ही अपने से वीरभद्र का निर्माण किया था ।
कृत्या शिव के आत्यंतिक क्रोध स्व उत्तपन्न हुई । इसकी शक्ति बाकी शक्ति यो सौ सौ गुना अधिक चलती हैं । भगवान शिव ने उच्चकोटि की साधना के रूप में उसको प्रगट किया ।
इस कृत्या को राजा विक्रमादित्य ने सिद्ध किया था। कुछ लोग कहते है की उनकी साधना अधूरी छुटी ओर कुछ कहते है की कृत्या बेताल रूप में परीक्षा के लिए आई । कृत्या ने ही वेताल को प्रथम निर्माण किया था ।
कृत्या का मतलब साधक के मन से निर्माण हुई एक कल्पना । व्यक्ति किसी कल्पना में अगर अंदर तक घुसे तो वो कल्पना साक्षात रूप लेती है , वो है कृत्या ।
अनेक लोक काल्पनिक विचारों से किसी देवी देवता की कल्पना मन ही मन करते हैं , ऐसे ही अनेक देवताओ का जन्म हुआ जो थे नही ।
रावण के सोने की लंका का राज यही तो था , उसे कृत्या सिद्ध थी । उसके जरिये ही लंका को सोने के रूप में बदल दिया । आपको लगेंगा की ये स्थूल सुवर्ण है ? सामान्य व्यक्ति को दिखने को स्थूल सोना है पर वास्तव में तो एक आभास है ।
भण्डासुर ने 105 ब्रम्हांड का निर्माण किया । क्या वो सचमुच मूल ब्रम्हांड जैसे थे ? दिखने के लिए तो थे पर वास्तव में नही ।
पुराणों में कुछ जगह मायावी युद्ध हुआ प्रसंग दिखता है । उसमें वास्तविक जगत से घातक भयंकर स्वरूप के दृष्य निर्माण कर , अघोरी से अघोरी शक्तियाँ निर्माण की जाती हैं । इसमे , आपको स्थूल सैन्य में ही काल्पनिक सैन्य दिखाई दे सकता है । योद्धा इससे भयभित होते थे , सैन्य का मनोबल कम होता था । किसी बड़े योद्धा जो एक बड़ा तांत्रिक कलाओ से युक्त है , सिद्धि है उसके पास ….. ऐसे को मारना मुश्किल होता हैं , तब दूसरा योद्धा ऐसे मायावी रचना कर माया जगत में युद्ध करते हैं । …… ये सब कृत्याए है ।
इस निर्माण हुई कृत्या में पंचतत्व नही होते । इसमे दो तत्व का अभाव होता है , पृथ्वी और जल तत्व इसमे नही होता इसलिए वो वास्तविक स्थूल शरीर नही एल सकती । इसलिए वो आपके मानसिक नियंत्रण से चलती हैं , आपका मस्तिष्क मन कहि भी जाए , कुछ भी करे कृत्याए उसे सिद्ध करती हैं । ये एक अघोरी विद्या है ।
रामकृष्ण परमहंस माँ काली से बात करते थे । उनकी ओर काली की लीलाए प्रसिद्ध हैं । रामकृष्ण ने उस काली की मूर्ति में अपने दिव्य भाव से कृत्या उत्पन्न की थी । वो काली की कृत्या थी जो रामकृष्ण जी के साथ रहती थी ।
ये मीराबाई ने भी कॄष्ण तत्व में किया था । उसका प्रेमभाव इतना था कि कृष्ण में उसकी कृत्या प्रगट हुई ।
ये एक बड़ा विज्ञान है । इसके ऊपर आचार्य रजनीश ने संशोधन किया था । उनका विज्ञान भैरव आप पढ़ेंगे तो पता चलेंगा । क्योंकि भैरव ने ही कृत्या विद्या को आगे बढ़ाया था ।
शिव ने ही विज्ञान भैरव को इसके अंदर की चाल बताई थी । जिसकी कल्पना सटीक हो वही उसको वास्तविक रूप में प्रगट कर सकता है । ये सचेतन ओर अचेतन मन का खेल है । …… ये सारे शिव ने बताए हुए ही सूत्र है ।
विज्ञान भैरव तंत्र देवी के प्रश्नों से शुरू होता है। देवी ऐसे प्रश्न पूछती हैं, जो दार्शनिक मालूम होते हैं। लेकिन शिव उत्तर उसी ढंग से नहीं देते। देवी पूछती हैं- प्रभो आपका सत्य क्या है? शिव इस प्रश्न का उत्तर न देकर उसके बदले में एक ‘विधि’ देते हैं। अगर देवी इस विधि से गुजर जाएँ तो वे उत्तर पा जाएँगी। इसलिए उत्तर परोक्ष है, प्रत्यक्ष नहीं।शिव नहीं बताते कि मैं कौन हूँ, वे एक विधि भर बताते हैं। वे कहते हैं : यह करो और तुम जान जाओगे। तंत्र के लिए करना ही जानना है ।
श्रीविद्या साधना में इसका एक अभ्यास है , आत्माके रहस्य और उनकी अलग अलग चाले ,….. ऊपरी जगत में किस तरह है से चलती है , जबतक ये नही समझ आता तबतक हम स्थूल जगत में कृत्या सिद्ध नही कर पाएंगे ।
कुछ गुरु लोग , शिव की इस विद्या को अपने नाम से जोड़ देते है । पर उनको सिर्फ , मानसिक ध्यानिय कल्पनाओं में शिष्यो को बांधकर , हिप्नोटिज्म करना आता है , ….. जिससे कि शिष्य को उस गुरु की बाते ही सत्य लगेंगी । भले वो कुछ भी कहे , अगर कोई ऐसे शिष्यो को जगाने भी जाए , तो वो जग नही पाएंगे । क्योंकि , ये शिष्य उस गुरु के गलत मानसिक धारणा की कृत्या में घिरे हुए हैं । ………. गुरु जहा जहा शिबिरे लगवाएंगे वहां वहां शिष्य जांएगे । ओर ये ऐसी दलदल होती हैं कि , उस गुरु की बात ही सत्य लगने लगेंगी । …. बल्कि वर्तमान में देखे तो मूल शास्त्र कुछ और ही कहते हैं , ….. इसमे शिष्य की वर्तमानता खिंच ली जाती है । क्योंकि , वर्तमान में जीने के लिए शरीर के साथ सचेतन मन की भी जरूरत है , अगर सचेतन मन ही ब्लॉक करवा दिया हो तो वर्तमान में सिर्फ शरीर कार्य करेंगा ।
ये आजके युग का Mass Hipnotizam or Helusination है । जो बड़े बड़े अध्यत्मिक संस्थाओं में उपयोग होता है । ये उन्ही पर प्रयोग होता है जो मन से कमजोर है अथवा कमकुवत है ।
कृत्या को गलत कार्यो में भी लगा सकते हैं और अच्छे कार्यों में भी।
बुद्ध कहते है, ‘ध्यान करो मत, ध्यान में होओ।’
अंतर बड़ा है। मैं दोहराता हूं, बुद्ध कहते है, ध्यान करो मत, ध्यान में होओ।‘ क्योंकि यदि तुम ध्यान करते हो तो कर्ता बीच में आ गया। तुम यही सोचते रहोगे कि तुम ध्यान कर रहे हो। तब ध्यान एक कृत्य बन गया। बुद्ध कहते है, ध्यान में होओ। इसका अर्थ है पूरी तरह निष्क्रिय हो जाओ। कुछ भी मत करो। मत सोचो कि कहीं कोई कर्ता है।
कृत्या विद्या को चलाना उतना आसान नही । क्योंकि उसका मानसिक सङ्कल्प शक्ति से बीज बोने के लिए , दो संकल्प को जोड़ के एक बनाना पड़ता है।
उसी तरह , एकेले साधक अपने सङ्कल्प से ये नही कर सकता । उसके लिए गुरु की परमकृपा आवश्यक है। ऐसा गुरु , जो सतगुरु हो , जिसने वो पद प्राप्त किया है , वो शक्तियाँ देखी है ।
क्योंकि , जिसने इसे जाना है वही इसको कैसे चलाते है उसको कहेंगा ।
कृत्या प्रयोग चलाते है , तब सिर्फ अपनी कल्पना को चलाने के साथ , उस साधना के शक्ती से कोनसे तीन तत्व के साथ कितनी पोटेंसी के साथ मिलाकर वो माया जगत निर्माण किया जाए , उसका ज्ञान जरूरी है ।
आपकी कमांड पँचमहाभूतो में से किसी तत्व के ऊपर चाहिए । और पँचमहाभूत ऐसे ही किसी के बस में नही आते ।
ऊपर के लेख में प्रथम यही कहा है कि साधक को साधना अंतर्गत कुछ विषयो का अभ्यास रखना चाहिए । जैसे की आत्माओं का ऊपरी जगत का रहस्य , ऊपरी जगत के स्तर , हर एक स्तर में कोनसे उर्जाकन कितने पोटेंसी पर रहते हैं , इन स्तरों पर कहा कहा कोनसे आत्माए किस स्वरूप में रहती हैं ।
रावण के बीस हाथ और दस सिर थे यह कल्पना है। रावण के न कोई दस सिर थे न बीस भुजाएं थी। यह एक कल्पना है, इसका अर्थ यह , कि उसके पास उस जमाने के बीस भुजाओं मे ताक़त होनी चाहिए , उतनी ताक़त थी, दस सिरों मे जीतनी बुद्धि होनी चाहिए उतनी बुद्धि थी ।
उतनी साधनाएं थीं। उसके पास उतना ज्ञान था उसके पास चांदी के सौ पचास सिक्के नहीं पुरे शहर के शहर को सोने का बना दिया । ये सब साधक के कृत्या शक्ति संपन्न हो सकता है ।
पूर्वकाल में रामायण , महाभारत काल मे भी कुछ ऋषियों को और श्रीदत्तात्रेय जी को भी कृत्या अवगत थी । इसके कारण एक जगह बैठकर ऋषि-मुनि कहिके भी चक्कर लगाकर आते थे , उनको झट सब पता चलता था । श्रीदत्तात्रेय भी ऐसे जगह गुप्त रहते थे कि कोई उन्हें परेशान करने न आए , ये वो कृत्या से अपने आपको स्थूल-सूक्ष्म जगत में अलिप्त कर लेते थे ।
जैसे , आजकल कार को काली कांच रहती है , उससे अंदर से बहार क्या हो रहा है पता चलता है पर बहार से अंदर नही देख सकते ।
ये जरूरी है , क्योंकि ये एक पराविज्ञान है । इसमे किस स्तर पर आपको कृत्या उत्पन्न करनी है तो उस स्तर के तत्वों को समाविष्ट करना पड़ता है ।
यह सब गहराई का अभ्यास है । राजा विक्रमादित्य के बाद यह साधना वेसे लुप्त हो गई ।
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