◆ श्रीविद्या अंतर्गत द्वादशान्त विज्ञान ◆
भाग : १
मेरे शरीरधारी गुरु तथा मेरे पराजगत के गुरु श्रीमहावतार बाबाजी को प्रणाम , करके उनकी प्रेरणा से ये महत्वपूर्ण ज्ञान आपतक पहुचा रहा हूँ ।
ॐ शिवेन वचसात्वा गिरिशाच्छावदामसि।
यथान: सर्वमिज्जगदयक्ष्य गंगवहे सुमनाऽअसत॥
अनर्घफ़लदात्रे च शास्त्रे वैवस्वतस्य च।
तुमयर्मध्य प्रदास्यामि द्वादशान्त निवासिने॥
ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: हस्तयोर्घ्य समर्पयामि॥
……… द्वादशान्त नामका एक शब्द ऊपरी पूजा विधान की अर्घ्य श्लोक में आया हैं ।
शिव पूजा के विधि में अर्घ्य देने का यह श्लोक है ।
शिव को द्वादशान्त निवासने कहा है ।
आज हम इसी विषय के बारे में जानेंगे ।
श्रीविद्या के दीर्घसूत्री अभ्यास में यह एक शब्द हमे मिलता है ।
जब , श्रीविद्या ओर श्रीयंत्र की रचना शरीर मे किस तरह से है , अन्तर्याग करते समय ….. कुण्डलिनी की अंतर्गत रचना केसी है , उसका विस्तार कैसे है ….. इसका ज्ञान होना जरूरी है ।
सिर्फ सात चक्र होते हैं और नाड़ीशुद्धिकरण , नाड़ीप्राणायाम मालूम होना , ध्यान में रहना , शांभवी मुद्रा करना ई ….. कार्य करना मतलब कुडंलिनी का विस्तार समझा , इसकी भूल न करे ।
नारद जी एक समय महालक्ष्मी की शक्ति तत्व का वर्णन इंद्रादि को बता रहे थे । उनसे प्रेरित हो इंद्र ने महालक्ष्मी की तपस्या की , तप से प्रसन्न हो महालक्ष्मी ने इंद्र को कुण्डलिनी तथा प्राणशक्ति के विषय में गंभीर ज्ञान देने शुरू किया ।
इंद्र ने लक्ष्मी से पूछा कि इस शरीर में कोनसे स्थान है जो समय अनुसार लय करने चाहिए ।
देवी कह रही है कि जांघो तक भूमि का स्थान , कटि तक जल का स्थान , नाभी तक तेज , हृदय तक वायु , कर्ण तक आकाश का स्थान , आखों के भौवे तक महत का स्थान , …….. है ।
तालु के पास जो मूर्धा स्थान है वहाँ से चार अंगुल ऊपर उर्ध्व भाग में प्रकृति तत्व का स्थान है , उसके षोडश अंगुल ऊपर अव्यक्त तत्व का स्थान है । इसके एकदश अंगुल उपर माया तत्व का स्थान होता है , इसीके द्वादश अंगुल की जगह शब्द ब्रम्ह का स्थान है । इसी शब्द ब्रम्ह को ” द्वादशान्त ” कहा जाता हैं ।
इस वर्णन को देखकर आप अगर तालु से अंगुली लगाने की कोशिश करेंगे तो होगा नही , सर के ऊपर तक आएंगे ।
स्थूल शरीर के ऊपर सूक्ष्म शरीर भी है ….. और भी शरीर होते हैं । उनमें बसे उस स्थान को स्थूल में आखा जाता हैं , एक सामान्य कल्पना से ।
श्रीविद्या साधक को द्वादशान्त शब्द का अर्थ ठीक से मालूम होना चाहिए । सभीको इसका ज्ञान जल्दी नहीं होगा , साधना के बल से ही आगे का ज्ञान उतरना शुरू होता है । इसलिए योग्य गुरु से श्रीविद्या की साधना आत्मसात करे ।
श्रीविद्या कभी भी गुरु के सामने रूबरू होकर ली जाती है , आपको ज्ञान के विषय मे गुरु से चर्चा करनी चाहिए । ….. शिष्य को ज्ञान से परिपूर्ण करने में जो प्रयास करता है वही योग्य गुरु कहलाने लायक होते हैं ।
अतः द्वादशान्त के विषय मे विस्तृत जानकारी समझे ।
आकृति पर गौर करे ।
धन्यवाद ।
क्रमशः ( दूसरा भाग आगे … )

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