◆ श्रीविद्या अंतर्गत द्वादशान्त विज्ञान ◆
भाग : २
द्वादशान्त की इस अवस्था को ओर गहराई से इस अगले लेख में समझते हैं ।
आकृति की ओर देखे ।
सर की शिखा के पास ही द्वादशान्त कहा गया है ।
हृदय से लेकर ऊर्ध्व ” द्वादशान्त ” के इस स्थान तक श्वास प्राण का प्रवाह माना जाता है। ” द्वादशान्त ” के पास प्राण प्रवाह समाप्त होता है ।
इसमें हृदय से लेकर कण्ठ तक का ९ अंगुल का प्रवाहकाल प्रथम प्रहर, कण्ठ से तालु के मध्य तक का प्रवाहकाल द्वितीय प्रहर, तालु के मध्य से ललाट तक ९ अंगुल तक तृतीय प्रहर और ललाट से ९ अंगुल ऊपर द्वादशान्त तक चतुर्थ प्रहर होता है।
इस प्रकार हृदय से लेकर द्वादशान्त तक ३६ अंगुल का प्राणचार चार प्रहर वाला आध्यात्मिक दिन और उसके विपरीत क्रम से द्वादशान्त से लेकर हृदय तक का प्राणीय आभ्यन्तर संचार चार प्रहर की रात्रि होती है।
सहस्राद्वितस्त्यन्तं द्वादशान्तमितीरितम्।
तदेव श्रीगुरुस्थानं षोडशान्तमितीरितम्॥
…… योगसूत्र के इस श्लोक की गंभीरता देखे तो ” द्वादशान्त ” को गुरु स्थान कहा गया है ।
श्रीविद्या में गुरूमण्डल का स्थान अथवा श्रीविद्या गुरूपादुका जिसे श्रीयंत्र के अंतिम बिंदु स्थित त्रिकोण कहते हैं , वो यही स्थान है । इसी त्रिकोण के तीन बिंदू ओ में गुरु के मनिपीठ होते हैं । द्वादशान्त की स्थिति यही तक कही गई है ।
द्वादशान्त , दो प्रकार के होते हैं , शिव द्वादशान्त और शक्ति द्वादशान्त ।
प्राण – अपान की गति जहा शुरू हो जहाँ रुकती है , उसे हृदय और द्वादशान्त कहते हैं ।
बाह्य श्वास को शिव द्वादशान्त और आंतर श्वास को शक्ति द्वादशान्त भी कहते हैं ।
सभी नाड़ियों की अंतिम अग्र भाग की स्थिति को भी द्वादशान्त कहते हैं ।
सर्वनाड़ीनामगोचरे प्रधाने पर्यान्तिके वा विषये द्वदशान्ते ।। ……..
सर्वतो रोमकुपान्त रेध्वपि चैतन्यदेवेशन प्रवेशेन शरीरे द्वादशान्त योस्ति ।। …..
ऊपरी श्लोक अनुसार , शरीर के रोम रोम में द्वादशान्त स्थिती मानी गई है ।
प्राण हृदयदेश से उद्भूत होकर कण्ठ, तालु, भ्रूमध्य, ललाट आदि स्थानों में होता हुआ द्वादशान्त(ब्रह्मरन्ध| से ऊपर) शाक्तप्रदेश में जाकर अस्त होता है ।
द्वादशान्त में द्वादश आधार के अन्तर्गर्भ में जाए ….
तँत्र शास्त्र में ऋ ऋ ल्र् ल्र् ऐसे चार स्वर आते है , जिन्हें नपुसंक बीज कहते हैं । मुख्य 16 सोलह स्वरों में इन चारों को निकाल दे तो 12 स्वर रह जाते हैं ।
इन बारा स्वरों की शरीर के … जन्मग्र , मूलाधार , कन्द , नाभि , हृदय , कंठ , तालु , भ्रूमध्य , ललाट , ब्रम्हरन्ध, शक्ती , व्यापिनी इन 12 स्थानों पर कल्पना करनी चाहिए ।
जन्मग्र को इसमे गुदाधार भी कहा गया है ।
इसमे , जन्मग्र से द्वादशान्त ओर हृदय से द्वादशान्त ऐसे दो प्रकार की प्राणशक्ति का वहन कहा जाता है ।
ऊपरी 12 स्थान यह 12 चक्र है , यह समझे ।
ब्रम्हरन्ध से ऊपर द्वादशान्त की स्थिति कही गई है ।
अब किसी किसी संप्रदाय में इन 12 चक्रों को 16 भागों में विभाजित किया है । जैसे कि , …. गुल्फ , जानू , मेंध्र , पायु , कन्द , नाड़ी , जठर , हॄदय , कूर्मनाड़ी , कंठ , तालु , भ्रूमध्य , ललाट , ब्रम्हरन्ध , द्वादशान्त ….. ऐसे
इसमे कन्द नाम का जो स्थान है , उसको सुषुम्ना नाड़ी का शुरू होने का स्थान अथवा मूल स्थान कहते हैं ।
ऊपरी 12 को ही योगिनी हॄदय में अकुल , विष , वह्नि , शक्ति , नाभी , अनाहत , विशुद्धि , लंबिका , भ्रूमध्य , कहके …… ललाट के ऊपर क्रमत: बिंदु – अर्धचंद्र – रोधिनी – नाद – नादन्त – शक्ति – व्यापिनी – समना – उन्मना ….. ऐसे क्रम कहा गया है ।
” रोधिनी – नाद – नादन्त ” ई ज्ञान के लिए श्रीविद्या अंतर्गत श्रीयंत्र ओर कुण्डलिनी के जोड़ का ज्ञान अच्छी तरह से ज्ञात होना चाहिए । श्रीविद्या में पंचदशी दीक्षा से पहले गुरु अपने शिष्य को इन सबका ज्ञान देते हैं ।
द्वादशान्त की स्थिति समझने से पहले उसके 12 स्थान समझने आवश्यक है , क्योंकि इन्ही बारा स्थानों से श्वास चलता है । द्वादशान्त इसमें अंतिम स्थान है ।
धन्यवाद ।
क्रमशः…….

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