बुद्ध और सुवर्ण सर्पराज

बुद्ध और सुवर्ण सर्पराज

https://srividyapitham.com/siddha-kunjika-sadhna/

नमस्ते मित्रों , श्रीविद्या पीठम में आपका स्वागत है। एक कथा हैं , आज बहुत जगहों पर कुण्डलिनी के विषय पर कुछ न कुछ चल रहा है। न जाने कितने लोग कुण्डलिनी जागृत करने के चक्करो में कितने लाखों रुपए खर्च करते हैं और शिविरों में एक ही टेक्निक होती है परन्तु उसमें थोडासा बदलाव करके हर जगह अलग अलग नाम से दी जाती हैं।
परन्तु कुण्डलिनी का वास्तविक सत्य अथवा उसको समझने की कला जानना बेहद जरूरी हैं। वह एक नटखट स्त्री हैं , वह एक सुंदर सोने के रंग की सर्पिणी हैं। पर दोनों को काबू कैसे करें? क्योंकि दोनों चलाख हैं । पर तुम चलाख नहीं हो , कैसे होंगे? क्योंकि तुम्हे चलाख बनाना सिखाया ही नहीं हैं।

कथा के शुरुआत में ,

जंगल में बुद्ध ध्यान करने बैठे हैं और एक सर्पराज सर्पों का राजा फन फैलाकर उनके सामने खड़ा हो गया। उसने झुककर बुद्ध के चरणों में प्रणाम किया।
बुद्ध ने आंख खोली और उन्होंने कहा महाराज,” आपके माथे पर अदभुत मणि है जो सिर्फ नागों में सम्राटों के माथे पर होती है ,आप क्या चाहते हैं?” तो उस नाग ने कहा मैं जन्मों— जन्मों से भटक रहा हूं। जो भी किया सब उलटा चला गया। कब तक सरकता रहूंगा जमीन पर? कब तक सरकता रहूंगा खाई— खंदकों में अंधेरी गलियों में? कब तक सरकता रहूंगा? कब उठूंगा? कब उड़ सकूंगा? तुम्हें मैने उड़ते देखा। तुम्हारे प्राणों की ऊर्जा को कहीं जाते देखा। इसलिए पूछता हूं मुझे कुछ उपदेश है? मेरे त्वचा का रंग सोने के रंग जैसा है वो क्या सच में मेरे आत्मा का प्रकाश हैं?

अब आप लोग भी सोचना इसे थोड़ा।
हम मनुष्य भी सब जमीन पर सरकते हुए सर्प हैं। हम मनुष्य भी गलियों में रस्तो पर अलग अलग कार्य करते हुए घूम रहे हैं , यहां कोई भौतिक सुखों के लिए रेंग रहा है, कोई किसी की दुश्मनी निकालने के लिए, कोई हिन्दू है मुस्लिम है ख्रिश्चन है …. सब वो ईश्वर कैसा है देखने के लिए मेहनत कर रहे हैं।

फिर सर्प का प्रतीक ही क्यों चुना होगा?

क्योंकि सर्प जन्म से ही दूसरे को चोट पहुंचाने का जहर लेकर आता है, इसलिए। उसके जहर की गांठ जन्म से ही उसके भीतर है। वह दूसरे को मारने में ही, दूसरे का घात करने में ही रस लेता है।
यही तो गांठ हम भी लेकर आए हुए हैं। और सर्प का प्रतीक सारे धर्मों ने चुना है।
उसमें कुछ कारण है।
ईसाई कहते हैं कि सर्प ने भटकाया आदमी को। ईव को समझाया कि खा ले यह फल जो भगवान ने वर्जित किया है। ईव को फुसलाया सर्प ने।

बुद्ध की इस कथा में सर्प कहता है कि कब तक मैं सरकता रहूंगा जमीन पर? हिंदू कहते हैं, कुंडलिनी जो ऊर्जा है मनुष्य के भीतर, वह भी सर्पाकार है। वह सर्प जैसी है। जब उठती है फन उठाकर तो उसका फन जब चोट करता है सहस्रार में तो सारे कमल खिल जाते हैं।

सर्प का प्रतीक आदमी के बहुत करीब है। उसमें कई खूबियां हैं। पहली बात, उसकी खूबी है कि सर्प बहुत चालाक। उस चालाकी के कारण ईसाइयों ने उसका प्रतीक बनाया कि उसने स्त्री को भरमाया, ईव को समझाया और अदम को ईश्वर की बगांवत में जाने का प्रोत्साहन दिया। सर्प बड़ा शैतान, क्योंकि बड़ा चालाक प्राणी है। बड़ा चालबाज। भरोसे का नहीं। उस प्रतीक का उपयोग किया।

बुद्ध की इस कथा में सर्प का प्रयोग हो रहा है इस अर्थ में कि सबकी दशा ऐसी है। कि हम जन्म से ही जहर की ग्रंथि लेकर पैदा हुए। दूसरे को चोट पहुंचाने में ही समाप्त हुए जा रहे हैं। दूसरे को मार डालने में ही हमने अपना जीवन समझा है।

लेकिन एक दिन सर्प भी थक जाता है। तुम कब थकोगे? एक दिन सर्प भी बुद्ध से पूछता है कि मैं कब तक ऐसे ही सरकता रहूंगा! तुम कब पूछोगे? इसलिए प्रतीक चुना।

इन पथरीले वीरान पहाड़ों पर
जिंदगी थक गयी है चढ़ते—चढ़ते
क्या इस यात्रा का कोई अंत नहीं
हम गिर जाएंगे थककर यहीं कहीं
कोई सहयात्री साथ न आएगा
क्या जीवनभर कुछ हाथ न आएगा
क्या कभी किसी मंजिल तक पहुंचेंगे
या बिछ जाएंगे पथ गढ़ते—गढ़ते
इन पथरीले वीरान पहाड़ों पर
जिंदगी थक गयी है चढ़ते—चढ़ते
धुंधुआती दिशाएं, अंगारे, ये खंडित दर्पण
टूटे इकतारे, कहते इस पथ में हम ही नए नहीं
हम से भी आगे कितने लोग गए
पगचिह्न यहां ये किसके अंकित हैं
हम हार गए इनको पढ़ते—पढ़ते
इन पथरीले वीरान पहाड़ों पर
जिंदगी थक गयी है चढ़ते—चढ़ते
हम से किसने कह दिया कि चोटी पर
है एक रोशनी का रंगीन नगर
क्या सच निकलेगा उसका यही कथन
या निगल जाएगी हमको सिर्फ थकन
देखें सम्मुख घाटी है या कि शिखर
आ गए मोड़ पर हम बढ़ते—बढ़ते
इन पथरीले वीरान पहाड़ों पर
जिंदगी थक गयी है चढ़ते —चढ़ते

ऐसा जब तुम्हें दिखायी पड़ जाए कि सरकते—सरकते वीरान रास्तों पर थक गए हो, तब तुम किसी बुद्ध के चरणों में सिर झुकाकर पूछते हो, अब क्या करें? क्या सर्प ही बने रहेंगे हम, या उठने का कोई उपाय है?

बुद्ध का अर्थ सिर्फ बुद्ध धर्म के गुरु नहीं बल्कि तत्वदर्शी तत्व को जानने वाला वह गुरु , जो किसी भी धर्म में हो सकता हैं। जो कभी हजारो शिष्यो की टोली नहीं बनाता। न की धन की अपेक्षा के लिए कोई साधना बेचता है।

Share

Written by:

213 Posts

View All Posts
Follow Me :

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!
× How can I help you?