श्रीमहिषासुरमर्दिनी स्तोत्र Part 2

श्रीमहिषासुरमर्दिनी स्तोत्र Part 2

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   ||●|| श्रीमहिषासुरमर्दिनी स्तोत्र ||●||

Part 2

     श्री लिंगमाश्रीतायै नमः ।।
मित्रों महिषासुरमर्दिनी स्तोत्र में अगला श्लोक है ,

मित्रों , आपने गुरु परंपरा से किस प्रकार कौनसा अर्थ का निरूपण है , ये तो पहले श्लोक से समझा ही होगा ।

इसी प्रकार से हम आगे का श्लोक देखते हैं ।

सुरवरवर्षिणि दुर्धरधर्षिणि दुर्मुखमर्षिणि हर्षरते
त्रिभुवनपोषिणि शंकरतोषिणि किल्बिषमोषिणि घोषरते ।

व्याख्या :
सुरवर ” का अर्थ देवी देवता , देवी देवता जब उस मूल पराशक्ति के प्रागट्य पर उसके स्तुती पर नए नए श्लोक सुमन अर्पित करते हैं , और उनसे प्रसन्न होकर देवी उन्हें अलग अलग वर के रूप में आशीर्वाद देती हैं ।

अर्थात , व्यक्ति भक्त भी प्रेम पूर्वक देवी का गान गाए तो देवी उसपर भी वर के रूप में आशीर्वाद देंगी ।

व्याख्या :
दुर्धरधर्षिणि का अर्थ है , दुर्धर मतलब जो गहरा हो , खोल , अंदर तक हो , जिसकी जड़े अंदर तक फैली है ऐसी कोई भी नकारात्मक ऊर्जा – प्रभाव कह सकते हैं ।
जैसे कि किसीके ऊपर काला जादू है , नजरदोष है , बाधा है , कार्मिक दोष अंदर तक है जिसके कारण शारीरिक भौतिक सुख में अड़चनें आई हो ।
ऐसे दुर्धर विषयो से निकालकर देवी रास्ते खोलती है ।
दुर्धर एक दैत्य था ।

व्याख्या :
दुर्मुखमर्षिणि का अर्थ है , दुर्मुख एक दैत्य हैं ।  जिसका मुख देखने लायक नहीं अथवा जिसके मुख के ऊपर नकारात्मक ऊर्जा है । जैसे कि बहुत लोग अलग अलग साधनाए तो करते हैं पर उनके चेहरे पर कोई तेज अथवा ऊर्जा नही दिखाई देती । क्योंकि मुख के ऊपर की ऊर्जा अथवा तेज , मन के अंदर की सुंदरता तथा स्वभाव के ऊपर है । अगर मन ही निर्मल नही फिर साधक का मुख दुर्मख होगा ।
तो उसे मन के अंदर की नकारात्मक सोच निकालकर मुख के ऊपर तेज देने वाली कहा है ।

व्याख्या :
त्रिभुवनपोषिणी का अर्थ है , तीन लोको को पोषित करने वाली ।
सबसे पहले मित्रों यह समझना होगा , देव हो या मनुष्य सबको एक सांसारिक जीवन है , उसमें बांधे गए हैं ।
पोषण सिर्फ मनुष्यों का ही नहीं बल्कि देवताओं का भी होता है और भूत पिशाचो का भी होता है । ये पोषण किस प्रकार से होता है , श्रीविद्या साधना में गुरु पंचकोषि में अलग अलग जो शक्तियाँ होती है उस विषय पर वाच्यता करते समय यह ज्ञान देता है ।

जैसे कि भूत है जिन्हें नकारात्मक विषयी वासनिक आत्माए कहा जाता है । ये लिंग शरीर रूप है । ये अपनी भूख आम व्यक्ति के ऊपर की ऊर्जा खिंचकर जीते हैं । उसके कारण बहुत बार अगर हम निगेटिव घर जगह व्यक्ति के पास जाते है तब अशक्त जैसा अथवा किसीने खिंच लिया ऐसा लगता है , ये उसका कारण है ।
देवी ने त्रिभुवन में सबको पोषण करने के लिए आशीर्वाद दिए हैं , किसीमें भेद नहीं किया ।
इसका अर्थ समझने के लिए पढ़ने वाले व्यक्ति को अपने बुद्धि की मर्यादा बढ़ानी होगी ।
तीन लोक होते है , उनकी तीन भैरविया होती है ।
श्रीविद्या में ललिता पोषण करने के लिए अपना रूप भैरवी रूप में रूपांतरित करती है , तब वह आकाश मार्ग की एक भैरवी – भूमि मार्ग की भैरवी – पाताल मार्ग की भैरवी , ये तीन रूप है जो उस उस मार्ग में आने वाले जीवों को पोषण करने का कार्य करती है ।

व्याख्या :
शंकरतोषिणी का अर्थ है कि वो शिव को आनंदित रखती है ।
मित्रो आपजो लगेंगा की शिव यानी पार्वती के पति वाले शिव दिखाई देंगे ।
यह थोडासा बुद्धि विस्तार बढ़ाए ।
शिव को समझने के लिए आपको 16 तत्व और 36 तत्वो को समझना होगा ।
मूल परमशिव और उनसे निकले शिव , तथा प्रकृति और पुरुष क्या है ? यह ज्ञान आवश्यक है । अन्यथा जो आप समझ रहे है वो उसका मूल मतलब ही नहीं , फिर आधा ज्ञान पीड़ादायक होता है ।
शंकरतोषिणी का अर्थ है शिव को पुरुष कह सकते है , पुरुष तत्व को चलाने के लिए शक्ति चाहिए अन्यथा ग्लानि आकर पुरूष का पुरुषत्व समाप्त हो जाएगा ।
उसी शक्ति को शंकरतोषिणी रूप कहा है ।

व्याख्या :
किल्बिषमोषिणि का अर्थ है , साधक के अंदर त्रुटि, अपराध, दोष, या कमी । देवी सभी का दोषशोषण करने वाली हैं । अपने अपराध का बोध होने पर, उसका स्वीकार कर लेने से, अपना दोषजन्य दुःख माता के सम्मुख कह देने से वे करुणामयी क्षमा करने में किंचित भी विलम्ब नहीं करती हैं ।
किसी किसी के मन में विष होता है , अर्थात दूसरे के प्रति द्वेष करना , काला मन ।
कुछ आध्यात्मिक जगत में ऐसे लोग होते है कि , दिखावे के लिए बहुत मंत्र जप और ध्यान करते हैं , परंतु दो व्यक्ति के बीच आग लगाते हैं , किसी व्यक्ति से मीठा बोलकर अंदर की इन्फॉर्मेशन निकालते हैं और अपने आपको बड़ा बताने की कोशिश करते हैं , परन्तु ऐसे लोग ऐसे कृत्य से अपने कुल को दोष देते हैं । घराने का नाम खराब करते हैं । इसे किल्बिष कहा गया है ।

मित्रों , ये गुरुओं के मन में भी होता है । साधना तो दिए जाते है पर मंत्रो के अर्थ और साधना की पूर्ण सत्यता नही बताई जाती , और मंत्रसाधना के नामपर आजकल ध्यान लगाकर कल्पना करवाई जाती है । बल्कि , मंत्र साधना अपने आप में अलग विषय है और ध्यान धारणा अलग , ध्यान क्रिया से संमोहित करके कई बार मंत्रो की दीक्षाए दी जाती है । मंत्रो को जागृत करने के लिए तर्पण , मार्जन , हवन , कुल्लिकादि क्रियाए लगती है ।
मूल विद्या न देकर संमोहन करना अर्थात यह स्वार्थ से धनलोभ होता है ।

श्री शंकराचार्य ने `देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम्` की रचना की है, जिसमें वे देवी से कहते हैं कि हे माता ! मैं तुम्हारा मन्त्र, यंत्र, स्तुति, आवाहन, ध्यान, स्तुतिकथा, मुद्रा आदि कुछ भी नहीं जानता । आगे कहते हैं कि तुम्हारे चरणों की सेवा करने में जो भूल हुई हो, उसे क्षमा करो । बारह श्लोकों के इस पवित्र स्तोत्र का अंतिम श्लोक उदहारण के रूप में दिया जा

हर व्यक्ति को क्षमा प्रार्थना करनी चाहिए ।
मित्रों , आपको शक्ति और बढ़िया स्वरूप से समझने के लिए हमारे ब्लॉग पर श्रीविद्या साधना के पाच सत्संग सुन सकते हैं ।
सत्संगों से आपका आत्मा भी ऊपर उठेंगी और संकल्प से सत्संग करने से भौतिक दुःख भी कम होगा ।
इस गुप्त नवरात्री में देवी के मुलज्ञान का आप लाभ ले सकते हैं ।
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