श्रीविद्या अंतर्गत महापद्माटवी वन तथा अग्नि कलाएँ
ह्रीं
नमस्तुभ्यं मित्रों , श्रीविद्या पीठम में स्वागत हैं ।
श्रीदत्तात्रेय परंपरा अनुसार जब श्रीविद्या साधना होती हैं , तब श्रीयंत्र का पूर्ण रूपसे पूजन होता हैं । जिसमें श्रीयंत्र रूपी महल 43 त्रिकोन स्वरूप 43 खंबो के ऊपर टिका हुआ हैं । 43 त्रिकोणों में से हर एक त्रिकोण का भाग लंबे लंबे विस्तार वाले श्रीललिता त्रिपुरसुंदरी के बगीचे उपवन वाटिकाए हैं , साथ ही वापिका आदि दिव्य नदिया हैं , देवी के श्रृंगार के साहित्यों की रचना उसमें की हैं ।
उसीमें से एक त्रिकोण हैं ,
” महापद्माटवी ” ………..
श्रीयंत्र के अंदर श्रीललिता का यह एक सुंदर बगीचा हैं ।
इस महापद्माटवी वन में पूर्व भाग में एक कोष ऊंचा अग्नि हैं , जो उस जगह वर्तुलाकार में सदैव जलता रहता हैं । ये आधे योजन विस्तार वाला अग्नि की जगह हैं ।
श्रीदत्तात्रेय परंपरा अनुसार श्रीविद्या साधना में श्रीयंत्र की जब पूजा होती हैं तब समानार्घ्य और विशेषाअर्घ्य मंडल की स्थापना होती हैं । इन दोनों मंडलों के सिवाय श्रीयंत्र पर अर्घ्य नहीं चढ़ता । जब ये दोनों मंडल पूजा में बनाए जाते हैं , तब अग्नि – सोम – सूर्य आदि तीन कलाओं का आवाहन किया जाता हैं । यही तीन कला हमारे तीन नेत्र है , जिसे हम वामा ज्येष्ठा रौद्री तक कह सकते हैं अथवा ईडा पिंगला सुषम्ना नाड़ियों की मूल शक्तियां भी कह सकते हैं ।
अग्नि कलाएँ और महपद्माटवी वन
तो ये जो अग्नि की कलाएँ हैं , वो श्रीयंत्र रूपी राजमहल में महापद्माटवी रूपी बगीचे में जो अग्नि हैं उसीके साथ रहती हैं । इसलिए इस महापद्माटवी को महाआधार भूमि तक कहा जाता हैं ।
यहां पर अग्नि की दस कलाएँ अलग अलग अग्नि को प्राप्त होकर हमेशा जलती हुई रहती हैं ।
१) धूम्रार्चि २) ऊष्मा ३) ज्वलिनी ४) ज्वालिनी ५) विस्फुलिंगिनी ६) सुश्री ७) सुरुपा ८) कपिला ९) हव्यवाहा १०) कव्यवाहा
ये वो दस अग्नि की कलाएँ ही , ये एक एक दैवीय शरीर वाली शक्तियाँ है , जिनके शरीर से अलग अलग अग्नि की चिंगारियां जलती रहती हैं ।
जहाँ जहाँ श्रीदत्तात्रेय परंपरा अनुसार श्रीविद्या दीक्षा दी जाती हैं , वहाँ पर ये ज्ञान गुरु अपने शिष्यों को प्रदान करता है ।
अग्नि की इस दस कलाओं …..
१) धूम्रार्चि २) ऊष्मा ३) ज्वलिनी ४) ज्वालिनी ५) विस्फुलिंगिनी ६) सुश्री ७) सुरुपा ८) कपिला ९) हव्यवाहा १०) कव्यवाहा
इन सभी कलाओं को श्रीविद्या साधना श्रीदत्तात्रेय परंपरा में महागणपति श्रीमातंगी श्रीवाराही श्रीबाला श्रीयंत्र आदि पूजाओं में आगमन किया जाता हैं ।
अग्नि की दस दैवीय कलाएँ महापद्माटवी वन में सूर्य रुप पात्र को पकड़कर खड़ी हैं । अग्नि की इन कलाओं से ऊर्जा लेकर सूर्य रूपी पात्र तयार होता हैं , अर्थात तीनो लोको का अंधकार दूर होता हैं । सूर्य की मूल ऊर्जा का रहस्य इन्ही दस कलाओं में हैं ।
अभी हम अग्नि की दस कलाओं का महत्व देखते हैं ।
१) धूम्रार्चि : जब आग जलती है तब पहले धुंआ और चिंगारी देती हैं ।
२) ऊष्मा : यह कला गर्मी पैदा करती हैं ।
३) ज्वलीनी : जलने वाली
४) ज्वालिनी : जलाने वाली
५) विस्फुलिंगि : आग जब बड़ी चिंगारी बनती हैं , दहक उठती हैं अर्थात विस्फुटित होती हैं ।
६) सुश्री : जलते अग्नि को सुंदर शोभा देने वाली
७) सुरुपा : जलते अग्नि का प्रकाश सर्वत्र फैलाने वाली
८) कपिला : आग में कपिल वर्ण यानी पिला वर्ण जो होता हैं ।
९) हव्यवाहा : अग्नि में डालने वाले आहुतियों रूपी वस्तुओं को इधर उधर लेकर जाने वाली । ये दिव्य सुगंध भी फैलाती हैं ।
१०) कव्यवाहा : अग्नि में समर्पित की गई तर्पण सामग्री पितरों तक पहुचाने वाली , पितर अर्थात सूर्य चन्द्र वायु और अन्य अन्य देवी देवता ।
ये श्रीविद्या में समानार्घ्य और विशेषाअर्घ्य मंडल पूजा में जो पात्र रखे जाते हैं , उसमें जो अग्नि कला आवाहन की जाती हैं , उस अग्नि के दस देवीयों के कार्य वर्णन हैं ।
© धन्यवाद ।
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