◆ श्रीविद्या साधना के उच्चतम उपासक श्रीकार्तिकेय ◆
आजके हमारे श्रीविद्या साधको के लिए नया विषय लिया है । साधना करते करते साधक किस अवस्था तक पहुँच सकता है ।
श्रीविद्या साधना एक विस्तृत विषय है।
श्रीविद्या साधक को अलग अलग विषयो – ज्ञान के संदर्भ में दृष्टिक्षेप करना पड़ता है।
व्यक्तिगत अभ्यास जरूरी है । कुछ श्रीविद्या साधक महत्वपूर्ण विषयों को समझ कर डायरी भी लिखते हैं।
सच्चे श्रीविद्या साधक का जन्म एक तपस्वी की तरह ही होता है। सांसारिक श्रीविद्या साधक को , अपने आगे की पीढ़ी को भी , कुल में किसी ने श्रीविद्या साधना की है ऐसा बताना पड़ता है।
क्योंकि , एक सही श्रीविद्या श्रीललिता की साधना कुल के दोष ओर पितरो के दोष तो कम करती ही है , पर आदिमाता के आगमन कुल में करने से ऊपरी जगत में पितरो को सन्मान भी मिलता है ।
कुछ लोगो को लगता है कि , गुरु से सिर्फ पंचदशी मंत्र की दीक्षा ली , घर पर आओ ओर जप करो …. फिर मोक्ष मिलेंगा ।
अगर सच मे ऐसा होता तो , कभी भी बाकी के संप्रदाय समाज में खड़े ही नहीं हो पाते , सब श्रीविद्या लेकर मोक्ष पाते ।
श्रीविद्या साधना फलीभूत होगी तो , जीवन को तपस्वी की तरह एक आकार आएगा , शक्तियाँ आकर्षित होगी , जीवन पूर्ण बदलेगा ….. विचारों में गंभीरता आएंगी । ……. पर ये तभी संभव है जब गुरु के साथ रूबरू रहो ।
श्रीविद्या साधना में बहुत जगह ” कुमार कार्तिकेय ” का नाम आता है । वो श्रीविद्या साधक भी थे और आचार्य भी , पर उनोने किस गुरु से इस विद्या को आत्मसात किया वह उल्लेख आजके जमाने मे किसी ग्रंथ में नही दिखता ।
कुमार कार्तिकेय अल्केमी शास्त्र में मास्टर है । अल्केमी का उपयोग शक्तिपात विद्या , मृतसञ्जीवन , कल्प विद्याओं में तथा पूर्वकाल में सोना बनाना ई के लिए भी होता था ।
यह ज्ञान उनोने श्रीदत्तात्रेय जी के पास लिया था । सम्भवता कभी कभी लगता है की श्रीविद्या साधना के भेद भी उनोने श्रीदत्तात्रेय से सीखे हो ।
तारकासुर का वध करने के लिए उनका जन्म था । मोर पे बैठे हुए कुमार , मोर ” परावाणी ” का प्रतीक है ।
श्रीविद्या साधक अगर कई सालों तक पंचदशी का जाप करे तो वो सामान्य शब्दो मे बोलेगा ही नही , पराजगत से कनेक्ट होकर ऊपरी जगत की भाषा तथा ज्ञान प्रक्षेपित करेंगा , इसे ” परावाणी ” कहते है ।
बहुत कम लोग जानते कि उनकी दो अनुयायी थी । एक वल्ली ओर एक देवसेना । वल्ली जो थी वो एक आदिवासी जनजाति की थी , देवसेना जो थी वो इंद्र की बेटी थी ।
मोर के पैरों में दबा हुआ सर्प , ” अहं ” को दबाने का ओर कुण्डलिनी को काबू करने का प्रतीक है।
मोर जो था वह गरुड़मन का पुत्र था । गरुड़ ओर सुषुम्ना नाड़ी का गुप्त संबंध है ।
गरुड़ का भाई अरुण जो सूर्य के पास थे , उनोने अपना पुत्र ” मुर्गा ” रूप कुमार को दिया ।
” अमृतावल्ली ओर सौन्दर्यवल्ली ” ये दो बेटी विष्णु जी के नेत्र से जन्मी थी । ये दोनों कुमार को बहुत चाहती थी और उसको पाने के लिए उनोने बहुत प्रयास किया । पर कुमार कार्तिकेय ने अमृतावल्ली को इंद्र की बेटी देवसेना रूप में स्थापित किया और सौन्दर्यवल्ली को शिकारियों का राजा निंम्बराजा , कांचीपुरम के पास बेटी के रूप में स्थापित किया ।
शिव ने एक बार पार्वती से कहा था कि , ब्रम्हांड में से किसी आत्मा की ” मोक्ष ” प्राप्ति का जो गुप्त मार्ग है वह तुमारे अलावा कुमार कार्तिकेय को भी पता है।
जब कुमार दक्षिण भारत में अपने कार्य से निकले , तब उनोने शिव जी से पूछा कि मुझे मोक्ष प्राप्त करने के लिए कैलास पर वापिस आना पड़ेंगा ? उसपर शिव ने कहा कि , किसी पावन पवित्र तीर्थक्षेत्र में रहकर भी यह तुम प्राप्त कर सकते हो।
कुमार को जो गुप्त ज्ञान जिसे मोक्ष कहते उसका भेद शिव ने पार्वती को ” पँचमवेद ” स्वरूप में बताया था। श्रीविद्या साधना अंतर्गत उसे गुरु से अल्प स्वरूप में ज्ञान दिया जाता है।
आगे हम लेख में कार्तिकेय की महाभारत पर्व के समय के मातृका ओ का उल्लेख करेंगे । जिन मातृकाओं ने युद्ध मे कुमार का साथ दिया था।
महाभारत के शल्यपर्व में वैशंपायन जी भरत नरेश को उन मातृकाओं के नाम बताते है , जो शत्रुओं का संहार करने वाली तथा कुमार कार्तिकेय की अनुचरी हैं।
जिन कल्याणकारिणी देवियों ने विभागपूर्वक तीनों लोकों को व्याप्त कर रखा है।
प्रभावती, विशालाक्षी, पालिता, गोस्तनी, श्रीमती, बहुला, बहुपुत्रिका, अप्सु जाता, गोपाली, बृहदम्बालिका, जयावती, मालतिका, ध्रुवरत्ना, भयंकरी, वसुदामा, दामा, विशोका, नन्दिनी, एकचूडा, महाचूड़ा, चक्रनेमि, उत्तेजनी, जयत्सेना, कमलाक्षी, शोभना, शत्रुंजया, क्रोधना, शलभी, खरी, माधवी, शुभवक्त्रा, तीर्थनेमि, गीताप्रिया, कल्याणी, रुद्ररोमा, अमिताशना, मेघस्वना, भोगवती, सुभ्रू, कनकावती, अलाताक्षी, वीर्यवती, विद्युज्जिह्वा, पद्मावती, सुनक्षत्रा, कन्दरा, बहुयोजना, संतानिका, कमला, महाबला, सुदामा, बहुदामा, सुप्रभा, यशस्विनी, नृत्यप्रिया, शतोलूखलमेखला, शतघण्टा, शतानन्दा, भगनन्दा, भाविनी, वपुष्मती, चन्द्रसीता, भद्रकाली, ऋक्षाम्बिका, निष्कुटिका, वामा, चत्वरवासिनी, सुमंगला, स्वस्तिमती, बुद्धिकामा, जयप्रिया, धनदा, सुप्रसादा, भवदा, जलेश्वरी, एडी, भेडी, समेडी, वेतालजननी, कण्डूतिकालिका, देवमित्रा, वसुश्री, कोटरा, चित्रसेना, अचला, कुक्कुटिका, शंखलिका, शकुनिका, कुण्डारिका, कौकुलिका, कुम्भिका, शतोदरी, उत्क्राथिनी, जलेला, महावेगा, कंकणा, मनोजवा, कण्टकिनी, प्रघसा, पूतना; केशयन्त्री, त्रुटि, वामा, क्रोशना, तड़ित्प्रभा, मन्दोदरी, मुण्डी, मेघवाहिनी, सुभगा, लम्बिनी, लम्बा, ताम्रचूड़ा, विकाशिनी, ऊर्ध्ववेणीधरा, पिंगाक्षी, लोहमेखला, पृथुवस्त्रा, मधुलिका, मधुकुम्भा, पक्षालिका, मत्कुलिका, जरायु, जर्जरानना, ख्याता, दहदहा, धमधमा, खण्डखण्डा, पूषणा, मणिकुट्टिका, अमोघा, लम्बपयोधरा, वेणुवीणाधरा, शशोलूकमुखी, कृष्णा, खरजंघा, महाजवा, शिशुमारमुखी, श्वेता, लोहिताक्षी, विभीषणा, जटालिका, कामचरी, दीर्घजिह्वा, बलोत्कटा, कालेहिका, वामनिका, मुकुटा, लोहिताक्षी, महाकाया, हरिपिण्डा, एकत्वचा, सुकुसुमा, कृष्णकर्णी, क्षुरकर्णी, चतुष्कर्णी, कर्णप्रावरणा, चतुष्पथनिकेता, गोकर्णी, महिषानना, खरकर्णी, महाकर्णी, भेरीस्वना, महास्वना, शंखश्रवा, कुम्भश्रवा, भगदा, महाबला, गणा, सुगणा, अभीति, कामदा, चतुष्पथरता, भूतितीर्था, अन्यगोचरी, पशुदा, वित्तदा, सुखदा, महायशा, पयोदा, गोदा, महिषदा, सुविशाला, प्रतिष्ठा, सुप्रतिष्ठा, रोचमाना, सुरोचना, नौकर्णी, मुखकर्णी, विशिरा, मन्थिनी, एकचन्द्रा, मेघकर्णा, मेघमाला और विरोचना।
साधक एक एक नाम ठीक से पढ़े । शक्तियों का विस्तार ब्रम्हांड में किस तरह है , यह ज्ञात होगा ।
इस तरह से ये तथा और भी नाना रूपधारिणी बहुत सी सहस्रों मातृकाएं हैं, जो कुमार कार्तिकेय का अनुसरण करती हैं।
जब हम श्रीविद्या सीखते है तब इन मातृका का स्वरूप , उनका विस्तार पता होना चाहिए ।
वर्ण के रूप में इन मातृकाओं के नख, दांत और मुख सभी विशाल हैं। ये सबला, मधुरा (सुन्दरी), युवावस्था से सम्पन्न तथा वस्त्राभूषणों से विभूषित हैं।
इनका कार्य ऐसा है कि व्यक्ति के सोच के बहार का है। ये अपनी इच्छा के अनुसार रूप धारण करने वाली हैं।
इनमें से कुछ माताृकाओं के शरीर सिर्फ हड्डियों के ढांचे हैं। उनमें मांस का पता नहीं है। कुछ श्वेत वर्ण की हैं और कितनों की ही अंगकान्ति सुवर्ण के समान है। ये सब एक रूप से अघोर है।
कुछ मातृकाएं कृष्ण मेघ के समान काली तथा कुछ धूम्रवर्ण की हैं। कितनों की कान्ति अरुण वर्ण की है। वे सभी महान भोगों से सम्पन्न हैं। उनके केश बड़े-बड़े और वस्त्र उज्ज्वल प्रकाशमान हैं।
कुछ तो ऊपर की ओर वेणी धारण करने वाली, भूरी आंखों से सुशोभित तथा लम्बी मेखला से अलंकृत हैं। उनमेें से किन्हीं के उदर, किन्हीं के कान तथा किन्हीं के दोनों स्तन लंबे हैं। कितनों की आंखें तांबे के समान लाल रंग की हैं। कुछ मातृकाओं के शरीर की कान्ति भी ताम्रवर्ण की हैं। बहुतों की आंखें काले रंग की हैं।
यह स्वरूप कोई देखे तो वही मूर्च्छा होकर गिर जाए ।
श्रीविद्या अंतर्गत जब साधक श्रीविद्या की प्रथमतः श्रीमहागणपति से साधना करता है , ….. फिर आगे मातंगी और वाराही देवता भी है।
तथा श्रीयंत्र भेदन की क्रिया हो , उसमे मातृका योगिनी रक्षिणी मंडला खुल जाते है , जो विविध अंग से साधक को प्रताड़ित करते हैं।
इसलिए साधक को सही गुरु से ही श्रीविद्या आमने सामने बैठकर सीखनी चाहिए । हजारो लोगो की टोली लगाकर श्रीविद्या सीखी नही जाती । अन्यथा जब गलत जगह ऐसे विद्याओं का आवाहन होता है तब वहां साधना करने वाले साधको के मानसिकता पर तनाव आना या ऐसे भी देखे है साधक जो भ्रमिष्ट हो चुके हैं।
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