◆ श्रीविद्या साधना अंतर्गत मोक्ष को साधना ? ◆
भाग : २
मोक्षस्य मूलं यज्ज्ञानं तस्य मूलं महेश्वरः ।
तस्य पंचाक्षरो मंत्रो मूलमंत्र गुरोर्वच: ।।
… मोक्ष का मूल ज्ञान है , ज्ञान का मूल महेश्वर है , महेश्वर का मूल पंचाक्षर मंत्र है , मंत्र मा मूल गुरुवाणी है ।
पिछले लेख में मोक्ष के विषय में दो शास्त्र क्या कहते है इसके विषय में हमने देखा ।
आज हम ” श्रीविद्या गुरूपादुका ” के विषय मे जानेंगे ।
श्रीविद्या साधना के अंतर्गत गुरु का महत्व तो अत्यंत महत्वपूर्ण है। परंतु , श्रीविद्या में गुरु – शिष्य आमनेसामने होते हैं। न कि इस क्रिया में गुरु स्टेज पर बैठ कर , लोगो को भाषण देता है। यह क्रिया गुरुकुल में करने की है।
श्रीविद्या में गुरु प्रथम अवस्था में शिष्य को श्रीयंत्र अथवा श्रीललिता परमेश्वरी के अघोर चक्र मंडल से खुदकी की रक्षा कैसे करनी है , यह सिखाता है। इस अघोर मंडला में अनेक भूत-पिशाच भी है तथा योगिनी यक्षिणी भैरवी मातृका तथा अनेक प्रकार के इनके अंडर काम करने वाली छोटी छोटी अनुचरीया भी ………
साधना करने से पहले वो वहाँ पहुच जाते हैं अथवा कोई साधक घर पर साधना करता है , अर्थात पंचदशी का जाप करता है , तो वहाँ पहुच जाते हैं।
ये शक्तियाँ साधक के मन-मस्तिष्क का भक्षण करती हैं। इसलिए दसमहाविद्या तथा श्रीविद्या की साधना करने पर सौ बार सोचकर ही उतरना चाहिए।
सामन्यतः इसमे ज्यादातर श्रीविद्या साधक गलत तरीके की साधना से और सदैव पंचदशी के जाप के कारण मानिसक रूप से अस्वस्थ तनावग्रस्त , वैचारिकता विचित्र बन जाती है। हमने तो इसमें कई श्रीविद्या साधक पागल होते भी देखे हैं।
ये लक्षण है , …….. श्रीललिता का अघोर मंडल कैसे भक्षण करता है?
ये अनुचरी शक्तियाँ , मनुष्य से भी तेज होती है । इनकी , साधक का गन्ध सूंघने की , नाद सुनने की ओर ओरा स्कैन करने की शक्ति तीव्र गति होती है। इन्हें जल्द पता चल जाता है कि साधक श्रीविद्या की साधना सही मार्ग से कर रहा है ? उसका गुरु योग्य है? शक्ति को किस प्रकार देखता है ? उद्दिष्ट क्या है ?
इन सबमे पहले ये शक्तियाँ , श्रीविद्या साधक के पास ” गुरूपादुका
” है क्या , यह देखते हैं।
क्योंकि गुरूपादुका ही है , जो श्रीविद्या साधक को इन सब चक्करों से रक्षा करती हैं। कई श्रीविद्या सीखने वाले गुरु , साधना सिखाते वक़्त श्रीविद्या की गुरूपादुका नही देते । …….. ओर साधक के जीवन को मुसीबत में डाल देते हैं।
कुछ दिनों पहले महाराष्ट्र से ही , हमारे यहाँ किसी श्रीविद्या संस्था से जुड़ा हुआ एक साधक आया था , उसके घरवाले उसे लेकर आये थे । अवस्था पागलो जैसी थी । घर की पूजाघर में रखी हुई भगवान की तस्वीरें उसने फेक दी , घरवालों को घर से बहार करने लगा , झगडा करने लगा। बाद में घरवालों ने कही पूछताछ की , उस पूछताछ के दौरान जवाब आया कि इस व्यक्ति ने कोई विद्या लेकर रखी थी , जो उसे ठीक से करनी नही आई और विद्या उसका भक्षण कर रही थी ।
घरवालों को पता था , कि इसने श्रीविद्या साधना ले रखी थी और किसी गुरु के शब्दों के जंजालों में फंसकर मोक्ष के लिए रोज के 2-2 घण्टा पंचदशी मंत्र का जाप करता था।
ये पूरी बात मुझे उनोन्हे बताई । में भी हैरान रहा । जब वो लोग मेरे पास आए , तब मेरा पहला सवाल यही था , की क्या आपको श्रीविद्या साधना देते वक्त गुरूपादुका दी थी ? ….. साधक कहने लगा , ये क्या होता है?
मित्रो , श्रीविद्या साधना करते वक़्त अपने गुरु से श्रीविद्या गुरूपादुका की पहले दीक्षा ले । ये एक रक्षाकवच है जो भले भले काम करने की क्षमता रखता है।
गुरूपादुका मतलब , सौ सोनार की एक लोहार की ।
आपकी नींव ही मजबूत नही ओर आप आसमान को छूने चले है ।
श्रीविद्या गुरूपादुका , ……. साधना की नींव है ।
कुछ श्रीविद्या साधको के मन में आएगा कि , देवियाँ तो माता होती है और माता अपने भक्तों की रक्षा करती है । फिर देवी अपने भक्त को कैसे संकट में डालेंगी ?
देवी वेसे भी किसी संकट में नही डालती । हर व्यक्ति को तर्कबुद्धि तथा सोचने की क्षमता दी हुई है । हम डॉ के पास जाते है , कॉलेज का एडमिशन करवाते हैं , शादी करते हैं …. इन मे दिमाग लगाकर सूझबूझ से निर्णय लेते हैं। …….. फिर , आप कोई साधना कर रहे है तो उसके विषय में सोचने में ढील कैसे छोड़ सकते हैं।
भाव से होने वाली भक्ति और एक विशिष्ट साधना से निर्माण होने वाली भक्ति , ….. दोनों अलग है । दो नदिया एक ही जगह मिलती है , पाणी का रंग भी सेम है पर मोड़ अलग अलग है।
भाव भक्ति को कोई नियम नही है , दिल मे प्रेम होना जरूरी है ।
परन्तु उसी देवी की कोई विशिष्ट साधना हम करते है , तब साधना के कुछ नियम होते हैं। उनको उसी तरीके से सीखना पड़ता है ।
कोई भी साधना , हम उस देवी के शक्ति को ओर गहराई से महसूस करने के लिए करते हैं। फिर उस विषय का कुछ कायदाकानून तो होगा ही ।
श्रीविद्या साधक इसीमे भूल कर बैठते हैं।
इसलिए श्रीविद्या के अंतर्गत मोक्ष की कामना से पहले अपनी गुरूपादुका अवश्य ले ।
गुरूपादुका से श्रीविद्या की शुरुआत होती है।
दृष्टा शिष्यं जराग्रस्त व्याधिना परिपीडितम ।
उत्क्रमय्य ततस्त्वेन परतत्वे नियिजिते ।।
………. अर्थात गुरु को चाहिए कि वह शिष्य को जरा या व्याधि से ग्रस्त देखे तो शिष्य का शरीर से उत्क्रमण कराकर उसे परमतत्व में नियोजित करे ।
सही गुरु मिले तो इतनी तो उनमें शक्ति रहती ही है , की शिष्य का मृत्यु के बाद का सफर आसान करे ।
यह तभी संभव है , की गुरु से हमारी हमेशा बातचीत रहे । रूबरू होने से दो संकल्पो की एकता की वृद्धि होती है। एक गुरु का संकल्प ओर दूसरा शिष्य का संकल्प …..
……. श्रीविद्या में यही है , की पहले कोई व्यक्ति इच्छा व्यक्त करता है ” श्रीविद्या साधना ” करने की , तब गुरु उससे बातचीत …… व्यक्तिगत रूप से करते हैं। व्यक्ति भी गुरु को बातचीत से समझ लेता है । इससे बेसिक पात्रता देखी जाती है।
पिछले लेख में श्रीविद्या की शुरुआत ” गुरूपादुका ” से होती है , इसका विवेचन किया है।
इसके आगे , जब आप किसी मार्ग से श्रीविद्या सीखते हैं , द्वैत-अद्वैत कोई भी हो । यह साधना बनाने वाले ने शुरू से ही अर्थात करोड़ो साल पहले ही ” छह आम्नायों ” में बनाई थी। आम्नाय मतलब मार्ग पर चलना ।
श्रीयंत्रो के चार द्वार तथा उर्ध्व ओर अधो द्वार ऐसे छह मार्ग , …… ये परमशिव के छह मुख है ।
( शिव के पाँच मुख ओर छटवां मुख , ये गुप्त ज्ञान है जो यहां नही दे सकते । )
श्रीविद्या साधक को गुरूपादुका दी जाती है तब वो कौनसी ” आम्नाय ” से श्रीविद्या ले रहा है वो बताया जाता हैं।
यहां एक बात समझे , ” आम्नाय ओर गुरूपादुका ” का इतना महत्व है कि वो आपके कुल-गोत्र के समान है । समाज मे जैसे किसी परिवार को उनका कुल-गोत्र अगर पता न हो तो सन्मान नही होता , उसी तरह यह है।
जिस तरह एक स्त्री विवाह उपरांत कुंकु-मंगलसूत्र पति के प्रतीक के रूप में पहनती है , वेसे साधक ” आम्नाय-गुरूपादुका ” धारण करता है ।
चारो युगों में इन्ही छह आम्नाय के अंतर्गत साधना करके …… कामराज , दुर्वासा , अगस्ति , नंदी , कार्तिकेय , लोपामुद्रा , आदिशंकराचार्य ई आचार्यो के नाम से संप्रदाय हुए ।
यह संप्रदाय मतलब , सभी के मन्त्र पंचदशी मंत्र ही है …. सिर्फ आगे-पीछे बीजाक्षर किए गए है ।
जैसे इन पवित्र सिद्धत्माओ ने महाशक्ति को समझा वेसे ही उस संस्कार को लेकर उनका संप्रदाय बना ।
अब इन सबके विद्याए लुप्त हो चुके ओर लुप्त करवाए गए । क्योंकि इन विद्याओं के लिए अत्यंत पवित्रता आवश्यक है ।
काल के अनुसार धीरे धीरे मनुष्य की बुद्धि बदलती गई , मनुष्य स्वार्थी हो गया ।
आज के साल में ही देखे , कई श्रीविद्या साधक बन चुके है …. पर उनको बेसिक चीजे पूछो तो पता नहीं होती । गुरु को शिष्य का नाम पता नही ओर कुछ गुरु तो शिष्यों को डराकर रखते हैं।
छह आम्नायो में से एक एक आम्नाय में कुल 16 – 17 विद्याए है ….. हर एक आम्नाय का उद्देश्य अलग और प्राप्ती अलग ।
पूर्वाम्नाय , पश्चिमाम्नाय , उत्तराम्नाय , दक्षिणाम्नाय , षडाम्नाय , ऊर्ध्वाम्नाय … तरह छह आम्नाय है ।
उदाहरण स्वरूप , एक श्रीविद्या का दक्षिणाम्नाय श्रीविद्या लेते हैं । उसमें , प्रथम १) गुरूपादुका ( भैरव-वटुक गुरूमण्डल है ।) पादुका २) सौभाग्यविद्या मंत्र ३) बगलामुखी मंत्र ४) श्रीवाराही मंत्र ५) बटुक मंत्र ६) तिरस्कारिनी मंत्र ७) महामाया मंत्र ८) अघोर मंत्र ९) भेताल मंत्र १०) खड़गरावण मंत्र ११) वीरभद्र मंत्र १२) रौद्र मंत्र १३) शास्त्रु मंत्र १४) पाशुपतास्त्र मंत्र १५) ब्रम्हास्त्र मंत्र १६) वायव्यासत्र मंत्र १७) भैरव मंत्र १८) श्रीदक्षिणामूर्ति मंत्र ……… इसके उपरांत पंचदशी दीक्षा होती हैं।
…….. ऐसे ही बाकी आम्नायो में अलग अलग प्रकार से विद्याए है ।
इन सबको ध्यान में रखते हुए , श्रीदत्तात्रेयनंदनाथ कविराज नामके एक उच्चकोटि के श्रीविद्या साधक – आचार्य हो चुके थे । उनोन्हे श्रीविद्या को एक अलग क्रम से श्रीविद्या को बांधके लोगो के लिए उसे आसान किया ।
इस क्रम का उल्लेख श्रीललिता सहस्रनाम में भी आता है।
१) श्रीबाला त्रिपुरसुंदरी साधना २) श्रीमहागणपति (क्षीप्रा ) साधना ३) श्रीराजमातंगी साधना ४) श्रीवाराही साधना ५) पंचदशी दीक्षा ६) षोडषी दीक्षा ७) महाषोडशी दीक्षा ८) राजराजेश्वरी दीक्षा
श्रीविद्या साधना में श्रीराजराजेश्वरी दीक्षा अंतिम कही जाती है ।
उसके आगे बढ़े , तो ये संपूर्ण श्रीविद्या ओर एक पराविद्या की अंगविद्या के रूप में कार्य करती है ।
अर्थात संपूर्ण श्रीविद्या श्रीबगलामुखी की अंगविद्या हो जाती हैं।
अब इतनी सारे श्रीविद्या ओ में एक व्यक्ति कहांतक जा सके और इसमे द्वैत ओर अद्वैतता कैसे पा सकेंगा ।
हर एक विद्या का निर्माण एक विशेष उद्देश्य से किया है और उस क्रम पर भी विशेष उद्येश्य ही रखा है ।
श्रीविद्या पंचदशी ( 15 अक्षरो का मंत्र ) , षोडषी दीक्षा ( 16 अक्षरो का मंत्र ) अंत मे श्रीबगलामुखी दीक्षा ( 36 अक्षरो का मंत्र )
बनाने वाले ने इसे भी एक प्रयोजन स्वरूप ही बनाया है । बस उसका प्रयोजन समझना जरूरी है ।
वेसे इन सब विद्याए देखकर और पिछले दो लेख में दिए हुए श्रीकृष्ण और शिव के वचनों अनुसार इससे भी मुक्ति-मोक्ष संभव नही , जिसे मूल परमात्मा में विलीन होना कहते हैं।
To be continued …..
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