? श्रीयंत्र लेखन पद्धती ( योगिनी हृदय ) ?
ह्रीं
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बहुत लोग श्रीयंत्र का आकृती अलग अलग पद्धती से बनाते हैं । थोड़ा मुश्किल होता हैं , इतनी पेचीदा आकृती को बनाना ।
अलग अलग महाविद्याओं के यंत्र भी अलग अलग ओषधियों से बनाने के विधान शास्त्र में लिखे गए हैं ।
अब श्रीयंत्र का लेखन किस प्रकार करें ?
श्रीविद्या साधना में अतिमहत्वपूर्ण ग्रंथ ” योगिनी ह्र्दय ” हैं । यह ग्रंथ साक्षात महायोगिनी जिसे कहा जाता हैं , वह श्रीत्रिपुरसुन्दरी देवी का हृदय का भेद हैं ।
योगिनी ह्रदय में कहा गया हैं कि ,
सौम्याग्नेययुतैर्देवी रोचनागुरु कुंकुमै: ।
मूलमुच्चारयन् सम्यग् भावयेच्चक्रराजकम् ।।
अर्थात ,
हे देवी ! कपूर केसर के साथ रोचना , अगरु और कुंकुम को मिलाकर मूलमंत्र का उच्चारण करते हुए चक्रराज का लेखन करें ।
मूलमंत्र का उच्चारण वही कर सकते हैं , जिन्होंने श्रीविद्या की पूर्णत: सही क्रम से दीक्षा ली है ।
सौम्य शब्द कपूर को कहा गया हैं ।
कश्मीरी केसर को आग्नेय अथवा अग्निशिखा कहा गया हैं ।
रोचना शब्द गोरोचन को कहा गया हैं ।
कुंकुम को घुसृन कहा हैं और कालागुरु को अगरु ।
इस तरह से , कुंकुम में अगरु , केसर , गोरोचन आदि सबको मिलाकर सुधा डालकर चदंन बनाना हैं ।
सुधा का अर्थ शहद से हैं । शहद यह एक श्रीविद्या तंत्र में महत्वपूर्ण ओषधी हैं ।
जब इसका एक चदंन जैसा लेप बनता हैं , तब सोने की सुई बनाकर उसके द्वारा पत्थर पर श्रीयंत्र बनाना चाहिए ।
तथा अगर आप श्रीयंत्र का लेखन किसी ओर व्यक्ति के हाथों से करवाके ले रहे हैं तो उसे सौभाग्यविद्या के मंत्रो का उच्चारण करना चाहिए और अगर साधक खुद कर रहे हैं तो उसे भी वही नियम हैं ।
श्रीयंत्र के लेखन के लिए बहुत पवित्र ऊर्जा का आवाहन साधक के शरीर में होना चाहिए । शिवचक्र और शक्तिचक्र के त्रिकोण समान होने चाहिए ।
यही नियम हैं ।
धन्यवाद ।
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