SriVidya: Saundarya Lahiri – Hiranyagarbh 2

SriVidya: Saundarya Lahiri – Hiranyagarbh 2

 पिछले लेख से आगे शुरुआत करते हैं , …..
      सर्वप्रथम हिरण्यगर्भ से अंडे के रूप का एक मुख प्रकट हुआ।
     मुख से वाक् इन्द्री, वाक् इन्द्री से ‘अग्नि’ उत्पन्न हुई, तदुपरांत नाक के छिद्र प्रकट हुए।
    नाक के छिद्रों से ‘प्राण’ और प्राण से ‘वायु’ उत्पन्न हुई। फिर नेत्र उत्पन्न हुए। नेत्रों से चक्षु (देखने की शक्ति) प्रकट हुए और चक्षु से ‘आदित्य’ प्रकट हुआ।
    फिर ‘त्वचा’, त्वचा से ‘रोम’ और रोमों से वनस्पति-रूप ‘औषधियां’ प्रकट हुईं।
   उसके बाद ‘हृदय’, हृदय से ‘मन, ‘मन’ से ‘चन्द्र’ उदित हुआ। तदुपरांत ‘नाभि’, ‘नाभि’ से ‘अपान’ और अपान से ‘मृत्यु’ का प्रादुर्भाव हुआ।
    फिर ‘जननेन्द्रिय’, ‘जननेन्द्रिय’ से ‘वीर्य’ और वीर्य से ‘आप:’ (जल या सृजनशीलता) की उत्पत्ति हुई।
     यहां वीर्य से पुन: ‘आप:’ की उत्पत्ति कही गई है। यह आप: ही सृष्टिकर्ता का आधारभूत प्रवाह है। वीर्य से सृष्टि का ‘बीज’ तैयार होता है। उसी के प्रवाह में चेतना-शक्ति पुन: आकार ग्रहण करने लगती है। सर्वप्रथम यह चेतना-शक्ति हिरण्य पुरुष के रूप में सामने आई।
     ब्रह्म की 4 अवस्थाएं होती है । :-
1. अव्यक्त : जिसे व्यक्त नहीं किया जा सकता और जिसका प्रारंभ नहीं बताया जा सकता।
2. प्राज्ञ : अर्थात विशुद्ध ज्ञान या परम शांति अर्थात हिरण्य। यह हिरण्य पुरुष जल में जलरूप में ही ‍परम निद्रा में मग्न है। यही ब्रह्मा, यही विष्णु और यही शिव है अर्थात जब यह सोता है तो विष्णु है, स्वप्न देखता है तो ब्रह्मा है और जाग्रत हो जाता है तो शिव है।
3. तेजस : यही हिरण्य से हिरण्यगर्भ बना। इसे ही ब्रह्मा कहा गया। ब्रह्म का गर्भ ब्रह्मा या विष्णु का गर्भ। विष्णु अर्थात विश्व का अणु। अणु का गर्भ। यह स्वप्नावस्था जैसा है। कमल के खिलने जैसा है अर्थात निद्रा में स्वप्न देखना जाग्रति की ओर बढ़ाया गया एक कदम।
4. वैश्वानर : निद्रा में स्वप्न और ‍फिर स्वप्न का टूटकर जाग्रति फैलना ही वैश्वानर रूप है। यही शिव रूप है।
       तन्त्र कहता है कि इस आदि पिंड में महाकाली, महाशक्ति महाकाल के साथ मौज़ूद थी. महाकाल यानी शिव जो निष्क्रिय थे, जिनका न तो भूत था और न ही भविष्य. था तो सिर्फ़ वर्तमान. इसलिए उन्हें समय कहा जाता है. वह शिव और शक्ति से भरा महाबिन्दु अपनी धुरी पर घूम रहा था. भयानक था वह परिदृश्य-“निश्क्रान्ता बिंदुमध्ये तु लौलीभूतन्तु तत्समम्. “( कौलज्ञाननिर्णय– मत्स्येन्द्रनाथ )
       शक्ति ने सोचा एकोअस्य बहुस्यामि. फिर हुआ महानाद-शिव और शक्ति के अन्तर्सम्बन्ध से उत्पन्न. योगिनी तंत्र उसके बाद की घटनाओं को एक कथा का रूप देते हुए कहता है कि उस शून्य ब्रह्मांड मंडल में महाकाली ने सृजन–नृत्य किया जिसके दौरान उनकी ठोड़ी से पसीने की दो बूँदें टपक कर गिरीं, जिनसे ब्रह्मा और विष्णु का जन्म हुआ. दोनों भय से काँपने लगे और उनकी नासिका रन्ध्र से निकल कर बाहर गिर पड़े. इसके बाद ब्रह्मा उनकी पिंगला और विष्णु उनकी इडा नाड़ी में समाहित हो गये. दोनों ने कुल मिला कर पंद्रह करोड़ वर्षों तक उनकी आराधना की. काली प्रसन्न हुईं और ब्रह्मा को सृजन तथा विष्णु को सृजित जीव-जंतुओं के पालन-पोषण की ज़िम्मेदारी दी.
     अब ज़रा देखिए कि तंत्र की उपरोक्त बातें महज कोरी-कल्पना नहीं, विज्ञान ने किस प्रकार और कैसे उन पर प्रासंगिकता की मुहर लगा दी है.
     खगोल गणित और भौतिकी के अनुसार पूरा ब्रह्मांड प्राथमिक ध्वनियों या स्पंदनों के फलस्वरूप उत्पन्न हुआ है. पदार्थ और प्रतिपदार्थ के सायुज्यन से प्रकाश और गति का जन्म हुआ.
      सन् १९२७ में जौर्जी लीमाइतर ने प्राथमिक परमाणु की अवधारणा दी. उसके बाद १९३० से १९५० के बीच आइंस्टाइन के सापेक्षता वाद के आधार पर आलिसांदेर फ्राइदमान तथा एडविन ह्बल ने फैलते हुए ब्रह्मांड के बारे में बताया. महाविस्फोट का सिद्धांत आया और अनुमान लगाया गया कि एक खरब सैंतीस अरब़ वर्ष पहले सारा ब्रह्मांड बिंदु रूप में था. सन् १९४० में रॉल्फ ऐल्फर ने इसका नाम रखा यलेम. .
       आइंस्टाइन ने अपने सापेक्षता के सामान्य सिद्धांत के आधार पर ब्रह्मांड का एक नमूना तय्यार किया और दावा किया कि गुरुत्वाकर्षण के कारण ब्रह्मांड वक्राकार है इसलिये फैल या सिकुड सकता है. बाद में हर्बल की खोजों के बाद उन्होनें अपने मूल निष्कर्षों को खारिज़ किया और कहा कि वह उनके जीवन की सबसे बड़ी भूल थी.उस निष्कर्ष में कल्पना का पुट ज़्यादा था. संशोधित करके उन्‍होंने कहा कि ब्रह्मांड स्थिर और अचल है.
         तंत्र के अनुसार  महाशून्य स्थित बिंदु में इस स्पंदन से वायु प्रकट हुआ जिसने अग्नि को जन्म दिया. अग्नि ने जल को तथा जल ने धरती को प्रकट किया. अग्नि ही आदित्य है. वही हमारे शरीर में स्थित प्राण है.
       ब्रह्मांड पिरामिड आकार के स्पंदन कर रहा है. उसके विभिन्न स्तरों पर भाँति-भाँति के विश्व विराजमान हैं. हर स्तर का अपना एक निश्चित स्पंदन और चेतना है. इस महाविशाल पिरामिड के शिखर पर दश महाविदयाएँ रहती हैं जो ब्रह्मांड का सृजन, व्यवस्था और अवशोषण करती हैं. ये परम ब्रह्मांडीय माँ के व्यक्तित्व के ही दस पहलू हैं.
      वसुगुप्त ने इस दिव्य स्पंदन पर स्पंद कारिका नामक पुस्तक में लिखा है कि काल के रेखीय क्षणों में यह अनुक्रम से स्वतंत्र रहता है लेकिन काल के विभिन्न पहलुओं में इसकी कौंध आती-जाती नज़र आती है.
      हालाँकि वास्तव में ऐसा नहीं होता. यही माया है. शक्ति की इस महान ताक़त को सिर्फ़ तांत्रिक रहस्यवादी ही महसूस कर पाते हैं . स्पंद कारिका में इसे शक्ति-चक्र कहा गया है. दैविक स्रोत से उद्भूत मातृ -शक्ति का व्यापक चक्र ।
श्रीयंत्र में बिंदु रूप ब्रह्म वामाशक्ति है क्योंकि वही विश्व का वमन (यानी उत्पन्न) करती है-
ब्रह्म बिंदुर महेशानि वामा शक्तिर्निगते ।
विश्वँ वमति यस्मात्तद्वामेयम प्रकीर्तिता ।।
( ज्ञानार्णव तंत्र, प्रथम पटल-१४)
 पराशक्ति नित्य तत्त्व है जो हमेशा वर्तमान स्थिति में रहती और विश्व का संचालन करती है. वही शक्ति आद्य यानी ब्रह्म की जन्मदात्री है. वही जगत का मूल कारण,निमित्ति और उपादान भी है-ईशावास्यमिदम् सर्वम् यत किंच जगत्याम्.जगत (यजुर्वेद ४.१) वह  शक्ति स्वतंत्र है- चिति: स्वतन्त्रा विश्वसिद्धि हेतु:.(प्रत्त्यभिज्ञा सूत्र). जगत् निर्माण के लिये चिति शक्ति स्वतंत्र है. शरीर स्थित सहस्रार पद्म में चिति शक्ति रहती है. उसे ही मणिद्वीप कहा जाता है.
      श्रीविद्या में श्रीयंत्र के अभ्यास में वामा-ज्येष्ठा-रौद्री ये तीन देवियाँ है जिनसे त्रिकोण यानी शिवयोनी बनी है ।
      अंतरिक्ष में मौज़ूद सूर्य ही जीव-जगत में प्राण के रूप में विराजमान रहता है; आदित्यो ह वै प्राणो. इसलिये सूर्य को प्रसविता कहते हैं. सूर्य हैं प्रत्यक्ष देवता. सूर्य देता और लेता है. जो अन्न हम खाते हैं वह  शरीर के अंदर जाते ही अपनी सत्ता खो बैठता है.
      रह जाती है अन्नाद सत्ता जो अग्नि के रूप में होती है, जिसे वाक कहते हैं., इस अग्नि के गर्भ में सारी दुनिया समायी है. वह  वामा में प्रसूत होती है, ज्येष्ठा में बढ़ती है और वैखरी में समाप्त हो जाती है.सोम को विराट दिशा में वाक प्रकाशित करता है. विराट का अर्थ होता है दश. इन दसों दिशाओं के स्थिरीकरण, नियंत्रण और प्रशासन को दश महाविद्या कहा जाता है.
      दृष्टिकोण की विकृति मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी क्षति एवं असफलता है इस विपन्नता को यदि संभाला सुधारा जा सके तो समझना चाहिए कि मनुष्य जन्म को सफल सार्थक बनाने वाला आधार हाथ लग गया। इस कार्य में यों दूसरों से भी सहायता मिल सकती है पर प्रधानतया अपना ही साहस एवं अध्यवसाय जुटा कर आत्म-निर्माण का अभिनव प्रयत्न करना पड़ता है।
        यहाँ एक बात हजार बार समझ लेनी चाहिए कि आध्यात्म शास्त्र में शरीर विज्ञान विशुद्ध रूप से सूक्ष्म शरीर का वर्णन है। स्थूल शरीर में तो उसकी प्रतीक छाया ही देखी जा सकती है। कभी किसी शारीरिक अंग को सूक्ष्म शरीर से नहीं जोड़ना चाहिए। मात्र उसे प्रतीक प्रतिनिधि भर मानना चाहिए। शरीर के किसी भी अवयव विशेष में वह दिव्य शक्तियाँ नहीं है जो आध्यात्मिक शरीर विज्ञान में वर्णन की गई है। स्थूल अंगों से उन सूक्ष्म शक्तियों का आभार मात्र पाया जा सकता है।
       इसलिए , जब साधना करते हैं तब आने वाले अनुभव स्थूल शरीर के है अथवा सूक्ष्म शरीर के , इसकी पहचान करें । पिछले लेख में जो ध्यान में आने वाले अनुभव के विषय में कहाँ है वो स्थूल शरीर के है । आप सूक्ष्म की ओर बढ़ना ही नहीं चाहते ।
     भगवान् शंकराचार्य ने अपनी शक्ति साधना के अनुभवों की हलकी सी झाँकी सौंदर्य लहरी में प्रस्तुत की हैं। शक्ति के बिना शिव की प्राप्ति नहीं हो सकती। उपनिषद्कार के अनुसार यह आत्मा बलहीनों को प्राप्त नहीं होती। दुर्बलता के रहते ब्रह्म तक पहुँच सकने की क्षमता कहाँ से आ सकती है। इस दृष्टि से ब्रह्मविद्या के सहारे ब्रह्मवेत्ता बनने और ब्रह्म तत्व को को प्राप्त करने के प्रयत्न में भगवान् शंकराचार्य को शक्ति, साधना करनी पड़ी। और इसके लिये योगाभ्यास के-प्रत्याहार धारणा ध्यान समाधि के प्रयोग ही पर्याप्त नहीं रहे वरन् उन्हें पंचतत्वों की प्रवृत्ति का संचार और नियंत्रित कृति अपरा विद्या का अवलम्बन लेकर शरीर और मन को भी समर्थ बनाना पड़ा। इस प्रयोजन के अपरा विद्या की साधना में कुण्डलिनी शक्ति को प्रमुख माना जाता रहा है।
     यह कुण्डलिनी शक्ति साधना वो नही जो आपको लगती है , या आप करते है । यहाँ पर स्थूल छूट के सूक्ष्म की ओर प्रयाण होता है।
      शंकराचार्य ने भारती के प्रश्नों को यह कहकर टाला नहीं कि हम संन्यासी हैं हमें काम विद्या के संदर्भ में कुछ जानना या बताना क्या आवश्यक है ? वे जानते थे कि योग परा और अपरा विद्या के सम्मिश्रण का नाम है। परा अर्थात् ब्रह्म-विद्या अपरा अर्थात् शक्ति विद्या आत्मवेत्ता को दोनों ही जाननी चाहिये।
       ब्रह्म को शिव और प्रकृति को शक्ति कहते हैं। इन दोनों के मिलन का अतीव सुखद परिणाम होता है। ब्रह्म रन्ध्र में अवस्थित और ज्ञान बीज और जननेन्द्रिय मूल में सन्निहित काम बीज का मिलन भी जब संभव हो जाता है तो वाह्य और और आन्तरिक जीवन में आनन्द, उल्लास का ठिकाना नहीं रहता है। ब्रह्मानन्द की तुलना मोटे आचार्य में विषयानन्द से की जाती रही है। यह अन्ततः शक्तियों का मिलन भी अलंकारिक भाषा में ब्रह्म मैथुन कहा जाता है। कुण्डलिनी साधना की जब प्राप्ति होती है तो इस स्तर का आनन्द भी साधक को सहज ही मिलने लगता है।
      हिरण्यगर्भ के सूत्र को समझने के लिए , इन शिव – शक्ति के संयोग में आने वाले बहुत सारे विषयो की विस्तृत चर्चा और ज्ञान भी चाहिए ।
       आदिशंकराचार्य जी लिखे सौन्दर्यलाहिरी को समझने ने लिए गुरु से रूबरू होना आवश्यक है । और सही श्रीविद्या साधना का भी चयन आवश्यक है । अद्वैत होने से पहले उन्होंने किए अनेक प्रयोग और साधना में ली हुई यातना , को हम अनदेखा करते हैं ।
      आज सौन्दर्यलाहिरी अंतर्गत हिरण्यगर्भ के सूत्र के विषय में इतना ही ।

 || Sri Matre Namah ||

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