Sri Vidya – Sadashiv Tatva (सदाशिव तत्व) 2

Sri Vidya – Sadashiv Tatva (सदाशिव तत्व) 2

◆ श्रीविद्या अंतर्गत सदाशिव तत्व का अभ्यास ◆
भाग : २

पिछले लेख से आगे बढ़ते हैं।
सदाशिव तत्व की कोई आकृति नहीं है |
इनकी जो छवि फ़ोटो एवं मूर्तियों में दिखाई देती है ,वे इनके विभिन्न गुणों को प्रदर्शित करने वाली छवियाँ हैं |

सदाशिव एक तत्व का नाम है ,जो परम सूक्ष्म ,परम विरल , अनश्वर ,सर्वत्र व्याप्त रहने वाला एक तेजोमय तत्व है |
एक ऐसा तत्व जो सांसारिक नहीं है |इस सृष्टि में उस जैसा कुछ भी नहीं है |
यह अजन्मा है अर्थात इसकी उत्पत्ति नहीं होती |यह सदा शाश्वत है |इसी प्रकार यह तत्व नष्ट भी नहीं होता यह आत्मा नहीं है ,आत्मा भी इसी से अस्तित्व बनाती है ।

यह सांसारिक नहीं है पर इस प्रकृति और संसार की उत्पत्ति इसी से होती है |
इसमें जीवन नहीं है ,पर यह सभी के जीवन को उत्पन्न करके पोषित करता है और जीवित रखता है |

इसमें चेतना नहीं है किन्तु समस्त चेतना की उत्पत्ति इसी से होती है |
यह कोई जीव नहीं है ,पर यह सब कुछ जानता है |

इसमें भूत ,भविष्य और वर्त्तमान का सभी कुछ छिपा [अव्यक्त ] रहता है |

यह अनंत तक फैला हुआ एक विचित्र और अद्भुत तत्व है |

शिव और सदाशिव ,परमात्मा और विष्णु —इन दोनों में गुणात्मक अंतर है | सदाशिव अर्थात परमात्मा निर्गुण ,निराकार ,तत्व रूप है ।

सदाशिव का स्थान हमारे शीर्ष के चन्द्रमा के मध्य है और शरीर के ऊर्जा चक्र के मध्य यह उसी प्रकार व्याप्त है ,जैसे हमारे केंद्र में हड्डी |
अंतर केवल इतना है की यह धागे की भाँती सभी धाराओं के मध्य प्रवाहित होते हैं ,हड्डी स्थिर होता है |

जितने प्रकार के जीव –जंतु ,फल ,पेड़ ,पौधे पाए जाते हैं ,उनमे तीन स्तर होते हैं |
एक छिलके या चर्म का ,दूसरा मांस या गूदे का ,तीसरा हड्डी या कठोर काष्ठ का या बीज का |इन तीनो में तीन स्तर होते हैं ,बीज के ऊपर कठोर ,फिर गूदा ,फिर आतंरिक अंकुर होता है |

इस अंकुर के मध्य शून्य होता है |
यही शून्य सदाशिव है |
यह हमारे हड्डियों के मध्य भी एक सूक्ष्म नलिका छिद्र की भाँती प्रवाहित होते रहते हैं |

इडा–पिंगला के मध्य सुषुम्ना प्रवाहित होती रहती हैं |

सदाशिव —आत्मा के केंद्र में ,जीव –जंतु आदि सभी भौतिक ईकाई के केंद्र में विद्यमान होते हैं |

इनकी उत्पत्ति काली एवं तारा की शक्ति से होती है |

जब दो प्रकार की ऊर्जा धाराएं एक में विपरीत आवेश के आकर्षण में आपस में समाती हैं तो बीच में एक नाभिक या केंद्र की उत्पत्ति होती है ,यही केंद्र सदाशिव कहलाता है |

इसे भुवनेश्वरी भी कहते हैं |

सदाशिव से ही दोनों ऊर्जा धाराएं उत्पन्न होती हैं । यह दो ऊर्जा धाराए धनात्मक और ऋणात्मक के बीच की कड़ी है और यह सदाशिव का सगुण रूप हो जाता है |

धनात्मक केंद्र को हम सहस्त्रार ,ऋणात्मक केंद्र को मूलाधार और मध्य केंद्र को अनाहत के नाम से जानते हैं |

अर्थात राज राजेश्वर शिव या विष्णु या भुवनेश्वरी तीनो एक ही हैं ,पथ के अनुसार नाम हैं ।
अनाहत चक्र में केंद्र में स्थित हो सम्पूर्ण शरीर सृष्टि का संचालन करते हैं |

सदाशिव पूरे इकाई के उतपत्ति कर्ता है ,पूरे इकाई में व्याप्त हैं ,सभी केन्द्रों में व्याप्त होते हैं |

इस प्रकार सदाशिव सर्वत्र व्याप्त परम तत्व हैं जबकि उन्ही से उत्पन्न होते हैं उनके सगुण रूप शिव जो इकाई पर नियंत्रण रखते हैं और संचालन करते हैं |

जैसे कि चुंबक की दो साइड होती हैं । N ओर S , इनका मध्य सदाशिव तत्व है ।

इतिहास तो नाटक है। भारत में हम कहते है कि , राम और कृष्‍ण हर युग में होते है। बहुत बार वे हो चुके है और आगे भी बहुत बार वे होंगे।
इसलिए उनके इतिहास को ढोने की कोई जरूरत नहीं है। वे कब पैदा हुए इसका कोई महत्‍व नहीं है। यह अप्रासंगिक है। उनका अंतरिम केंद्र क्‍या है? वह धागा क्या है? यह बात अर्थपूर्ण है।
तो हमें इस बात में रस नहीं है। कि वे ऐतिहासिक थे या नहीं। कि उनके साथ क्‍या-क्‍या घटनाएं घटी। हमारा रस तो उनके प्राणों के केंद्र में है कि वहां क्‍या घटा।

श्रीविद्या के तत्व को समझने के लिए यही सोच बदलनी है । ये सब रूबरू होकर गुरु से ज्ञान लेना चाहिए । कुछ लोग सिर्फ पंचदशी का जाप करते हैं और उसे ही श्रीविद्या की साधना कहते हैं , ऐसे लोग खुदको श्रीविद्या के साधक भी कहते हैं , पर कुछ साल गुजरने के बाद भी ऐसे साधको में कोई ज्ञान का परिवर्तन अथवा साधना का बदलाव नही आता । ….. क्योंकि श्रीविद्या पंचदशी मंत्र दीक्षा हजारो लोगो के साथ आप ले रहे है , वही साधक फस जाता है । क्योंकि पेड़ से पका आम निकाल कर चूसना ओर लिक्विड आम का पेय पीना ….. दोनों अलग है । ……. श्रीविद्या में गुरु के साथ बात करना सीखो , गुरु से जो ऊपरी तत्व दिए हैं , उनका ज्ञान ले । तभी साधना फलीभूत होगी ।
अन्यथा , कोई शिव शिव कर रहे हैं , पर शिव और सदाशिव के तत्व को ही नही समझ रहा …… फिर साधक का जीवन समय बर्बाद समझो।

अहंकार समाज द्वारा दिया गया है। जब तुम प्रकृति से जुड़ते हो तो भी अहंकार थोड़ा-बहुत रह सकता है। लेकिन उतना नहीं जितना समाज में होता है। जब तुम अकेले होते हो तो अहंकार मिटने लगता है। क्‍योंकि वह सदा संबंधों से ही पैदा होता है। वेसे ही साधना का है , साधक अपने मन के भ्रमों के कारण जड़ बुद्धि को मिटाना नही चाहता ।

श्रीविद्या में यह एक मोड़ आता है जब आपको सदाशिव जैसा मध्य रूप बनना पड़ता है ।

 || Sri Matre Namah ||

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