निरालम्ब चित्

निरालम्ब चित्

निरालम्ब चित्

      वीरशैव संतों ने शून्य तत्व की ‘सर्वशून्य-निरालम्ब’, ‘शून्यलिंग’ और ‘निष्कल-लिंग’ के नाम से तीन अवस्थाओं को माना है। ये तीनों अवस्थाएँ विश्‍व की उत्पत्‍ति की कारणावस्था से परे हैं। जब निष्कल-लिंग में कारणावस्था का उदय होने लगता है, तब उस निष्कल-लिंग से एक प्रकाश निकलता है। इस प्रकाश को ‘चित्’ कहते हैं। इस चित् का कोई अन्य आलम्ब अर्थात् आधार नहीं है, वह स्वतंत्र है। अतः उसे ‘निरालम्ब-चित्’ कहा जाता है। इसको ज्ञानस्वरूप होने से ‘ज्ञान-चित्’ और विश्‍व की उत्पत्‍ति का मूल कारण होने से ‘मूल चित्’ भी कहते हैं।

इस निरालम्ब चित् से सर्वप्रथम ‘अ’, ‘उ’ और ‘म’ इन तीन वर्णो की सृष्‍टि होती है। इन तीनों को ‘नाद’, ‘बिंदु’ और ‘कला’ कहते हैं। चिद्रूप निरालम्ब चित् से उत्पन्‍न होने के कारण ये तीनों भी चिद्रूप ही हैं। अतः इनको चिन्‍नाद, चिद्‍बिंदु, चित्कला कहा जाता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि ‘अ’ कार ही ‘चिन्‍नाद’, ‘उ’ कार ही ‘चिद्बिंदु’ और ‘म’ कार ही ‘चित्कला’ कहा जाता है।

अ, उ, म ये तीनों वर्ण जब अपने कारणीभूत ‘निरालम्ब-चित्’ से संयुक्‍त हो जाते हैं, तब ऊँकाररूपी मूल प्रणव की उत्पत्‍ति होती है। यह ऊँकार उस अखंड ‘चित्’ का एक व्यक्‍त स्वरूप होने से ‘चित् पिंड’ कहा जाता है। इस चित् पिंड को ही वीरशैव संतों ने ‘अनादि-पिंड’ कहा है। इस चित् पिंड में आनंदस्वरूप की भी अभिव्यक्‍ति होती है, अतः उस ऊँकार को ‘चिदानंद’ भी कहते है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि ‘चित् पिंड’, ‘अनादिपिंड’, और ‘चिदानंद’ ये तीनों ऊँकार के ही पर्याय हैं। वीरशैव दर्शन में इस ऊँकार से ही समस्त विश्‍व की सृष्‍टि मानी जाती है।

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