◆ श्रीविद्या अंतर्गत अभ्यास के मुख्य अंग ◆
न्यासविद्या भाग : 4
आज हम अत्यंत अत्यंत महत्वपूर्ण न्यासविद्या के बारे में जानेंगे । श्रीविद्या में अत्यंत दुर्लभ ओर जिसके बिना यह विद्या पूरी न होती , वह ” महाषोढा न्यास ” ।
स्वतः शिव जी पार्वती को इस विषय में कहते है ,
एवं न्यासे कृते देवी साक्षात्परशिवो भवेत ।
मंत्री चात्र न सन्देहों निग्रहानुग्रहक्षम: ।।
… इस न्यास से साधक प्रत्यक्ष शिव होता है। इसमें कोई संदेह नहीं ।
महाषोढा ह्वयं न्यासं य: करोति दिने दिने ।
देवास्सर्वे नमस्यन्ति तं नमामि न संशय: ।।
… प्रतिदिन श्रीविद्या साधक यह न्यास करता है उसे सभी देवता नमन करते हैं।
महाषोढा ह्वयं न्यासं यत्र मंत्री न्यसेत्तत: ।
दिव्यक्षेत्रं समुद्दिष्ट समन्ताद दशयोजनम ।।
…. जो श्रीविद्या साधक यह न्यासविद्या करता है उसका क्षेत्र दिव्य होता है ।
आपको अब शिव के इन वचनों का महत्व समझा होगा । आपके गुरु ने पंचदशी मंत्र की दीक्षा देते समय इन न्यासविद्या का महत्व बताया ? कुछ चीजो को पाने के लिए साधक का कुल कुलदेवी ओर पितरो का आशीर्वाद चाहिए ।
महाषोढान्यास के अन्तर्गत छः न्यास किए जाते हैं। यथा प्रपंच-न्यास, भुवन-न्यास, मूर्ति-न्यास, मंत्र-न्यास, देवता-न्यास तथा मातृ-न्यास।
⚜️ महाषोढान्यास
अंतर्गत प्रथम प्रपंच-न्यास है । शिव के पँचमुखो का आवाहन किया जाता है। अतः पृथ्वी के समस्त द्वीप, महासागर, पर्वत, शक्तिपीठ, वन, गुहाऐं, नदियां, विभिन्न योनियों के प्राणियों, काल परिमाणों, पंचभूत, पंच तन्मात्रा तथा त्रिगुणों की अधिष्ठात्री देवियों को स्व-शरीर में प्रतिष्ठापित किया जाता हैं।
इसी प्रकार भुवन न्यास में चौदह-भुवनों अर्थात अतल वितल सुतल महातल तलातल ई चौदह लोको को उनके योगिनी सहित शरीर मे आवाहन किया जाता है।
आगे मूर्ति-न्यास में त्रिदेवों अर्थात विष्णु के अलग अलग अवतार तथा शिव के अवतारों को शरीर मे आवाहित किया जाता है।
मंत्र-न्यास में प्रणवाद्य एकाक्षरात्मक से त्रिपुरादि षोडशाक्षरात्मक मंत्रों का आहावन होता है। मूलाधार से लेकर सहस्रार , उसके आगे ध्रुवमण्डल तक ब्रम्हांड का विस्तार है उन स्थानों के खुदके अलग मन्त बीज है उन देवताओ को आवाहित किया जाता हैं।
दैवत-न्यास में ऋषीकुल से लेकर चराचर-कुल सहित शक्तियों का आवाहन होता है। जैसे कि योगिनी कुल तपस्वी कुल शांत कुल मुनि कुल दैवत कुल राक्षस कुल विद्याधर कुल अप्सरा कुल गुह्यक कुल किन्नर कुल ई । इनमें एक एक अंबा निवास करती है , जैसे प्रतिष्ठाम्बा विद्याम्बा शांतम्बा गगनाम्बा करालीकाम्बा ई।
तथा मातृकाभैरव न्यास में भूचरकुल से लेकर जलचर-कुल तक की अधिष्ठात्री देवियों तथा अष्टभैरवों का स्वशरीर में प्रतिष्ठापन करके देवत्व प्राप्ति एवं पिन्ड-ब्रह्मान्ड की ऐक्यता की स्थिति प्राप्त की जाती है। जैसे की , भुचरीकुल की मंगलाम्बा ओर ब्रम्हान्याम्बा को असितांग भैरव से जोड़ के आवाहित किया जाता है। ऐसे ही खेचरीकुल की चर्चिका ओर माहेश्वर्याम्बा
को रुरु भैरव से जोड़ के , पातालचारी की योगेश्वर्यम्बा ओर कौमर्याम्बा को चंड भैरव के साथ ई. ।
महाषोढान्यास
के विषय मे शिव आगे अत्यंत महत्वपूर्ण श्लोक कहते है ,
ऊर्ध्वाम्नाय प्रवेशश्च पराप्रसाद चिन्तनम ।
महाषोढा
परीज्ञानं नाल्पस्य तपस: फलं ।।
….. इस श्लोक का अंतरंग समझने के लिए श्रीविद्या के साधना का प्रचण्ड बल चाहिए । जिसको इस श्लोक का भेद समझता है , वह मोक्ष तथा अद्वैतता भेद जान लेता है। इसके लिए सही मार्ग से श्रीविद्या साधना करनी पड़ती है । आप सोचिए , क्या आपने सही श्रीविद्या के गुरु को पकड़ा है ? इसलिए श्रीविद्या साधना में पहले कुल को समझा जाता हैं , जो है आम्नाय ।
आम्नाय का महत्व ही इतना है कि उसके बिना श्रीविद्या पूर्ण ही नहीं । अगर आपको अपने परिवार का कुल गोत्र पता नहीं हो फिर आपके परिवार को समाज मे उतनी मान्यता नही रहती , कम आखा जाता है ऐसे परिवार को । वैसे ही श्रीविद्या साधना में कुल स्वरूप में आम्नाय की महत्ता गुरु बताता है ।
शिव जी स्वतः पार्वती को कहते हैं , जिसे आम्नाय और गुरूपादुका जानने की कोशिश नही की वो गुरु भी चांडाल बन जाता हैं और शिष्य भी चांडाल योनि में जन्म लेता । ये खुद शिव का वाक्य है , आप कुलार्णव तँत्र पढ़ सकते हैं ।
श्रीदत्तात्रेय , श्रीपरशुरामजी , श्रीआदिशंकराचार्य सबने आम्नाय को जाना समझा । यह वो विषय है जिसको सुनने से ही श्रीविद्या का फल मिल जाता हैं , और ये विषय कितीने भी पैसे खर्च करके नही मिलता ।
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