◆ श्रीविद्या साधना अंतर्गत पशुभाव से आरोहण ◆
भाग : २
मेरे शरीरधारी गुरु तथा मेरे पराजगत के गुरु श्रीमहावतार बाबाजी को प्रणाम , करके उनकी प्रेरणा से ये महत्वपूर्ण ज्ञान आपतक पहुचा रहा हूँ ।
पहले लेख में हमने पशुभाव को समझा । अब शिव ने पार्वती को इस विषय मे क्या कहा है , यह देखेंगे ।
जन्म से विश्व का प्रत्येक जीव पशुभावप्रधान प्राणी होता है , मनुष्य भी।
हमें कालक्रम में उस पशुभाव को देवभाव में बदलना होता है।
पहले चरण में जिस मनुष्य का आचार पशुवत है , उन्नत जीवनचर्या और साधना के द्वारा , उसे मनुष्यत्व में बदलता है। इसके बाद वह अपने उस मनुष्यत्व को प्रयासों द्वारा देवत्व में प्रतिष्ठित करता है।
पशुत्व से देवत्व में यह जो क्रमोन्नयन है , यह जिस पद्धति द्वारा संभव हो सकता है , उसी का नाम ‘ साधना ‘ है।
कहा गया है कि जन्म से सभी शूद्र हैं , यहां शूद्र का अर्थ है – जिसके अंदर पशु वृत्तियां हैं।
मनुष्य जब दीक्षा लेता है अर्थात सीख लेता है कि किस तरह से प्रार्थना करनी है तो ऐसी अवस्था को ‘ द्विज ‘ कहा गया।
द्विज शब्द का अर्थ है , जिसका जन्म दो बार हुआ। इसके बाद शास्त्रों के अध्ययन और सम्यक आध्यात्मिक ज्ञान से वह बनता है विप्र। और अंतिम चरण में तांत्रिकी दीक्षा या मानसिक – आध्यात्मिक साधना की सहायता से ब्रह्मोपलब्धि के बाद होता है ब्राह्माण।
तो क्या जो पशुभाव युक्त मनुष्य है , उसका कोई रक्षक या कल्याणकर्ता नहीं है ? निश्चय ही है , क्योंकि परमपुरुष सभी के साथ ही सम भाव से विराजमान होते हैं। मानव देहधारी पशुस्वभाव जीव में भी वे विद्यमान हैं। यह जीव पशु स्वभाव वाला है , इसलिए इनके उपास्य देवता हैं ‘ पशुपति ‘ ।
जरूरी होता है की श्रीविद्या सिखाने वाले गुरु इस विषय का ज्ञान अपने शिष्य को आमने सामने दे ।
क्योंकि श्रीविद्या एक अत्यंत पवित्र विद्या है जहां ऊँचनीच नही होनी चाहिए । श्रीविद्या जीवन का एक अलग नियम है , जिसका संस्कार गुरु से साधक पर होना चाहिए।
श्रीविद्या साधना जो सीखने के लिए आता है , उससे पहले गुरु उस व्यक्ति से बातचीत कर उसका स्वभाव जान लेता है ।
क्योंकि समाज में अलग अलग स्वाभव वाले लोग हैं। व्यक्ति किस कुल में पैदा हुआ है , उसका आचरण कैसा है , विचार कैसे है , व्यक्ति बड़ा तो हुआ है पर उसका बालिश बोलना है , क्रिमिनल विचार तो नहीं , अगर स्त्री व्यक्ति है तो उसमें अत्यधिक स्त्री स्वभाव चंचलता दूसरे स्त्री से द्वेष करना ई. का अभ्यास करना पड़ता है।
इसकी आवश्यकता क्यों?
क्योंकि श्रीविद्या साधना एक बड़ी विरासत है ।
गुरु से सिर्फ मंत्र दीक्षा लेना यानी दीक्षीत होना नहीं। अगर बिल्डिंग की नींव ही अच्छा नहीं है , जमीन में दलदल है फिर ऐसे कीचड़ में इमारत खड़ी ही नहीं हो सकती ।
भले जोड़तोड़ से बनाई इमारत बाद में गिर जाती है ।
ऐसे ही जड़त्व स्वभाव गुण धारन किया हुआ श्रीविद्या साधक , मंत्रो का रट्टा लगाकर क्या हासिल करेंगा।
इसलिए श्रीविद्या में साधक की नींव तयार की जाती है । जैसे ऊपर दिया हुआ आचरण हो तो गुरु अपने साथ रखकर उसे सुधारता है ।
पशुभाव से आगे बढ़ने की एक क्रिया है ।
‘यह ब्रह्मांड एक रिक्त खोल है जिसमें तुम्हारा मन अनंत रूप से कौतुक करता है।‘
तुम्हारा मन अनवरत खेलता चला जाता है। पूरी प्रक्रिया एक खाली कमरे में चलते हुए स्वप्न जैसी है।
साधना ध्यान में अपने मन को कौतुक करते हुए देखना होता है। बिलकुल ऐसे ही जैसे बच्चे खेलते है।
इतना ही पर्याप्त है। विचार उछल रहे है। कौतुक कर रहे है। बस एक लीला है। उसके प्रति गंभीर मत होओ।
यदि कोई बुरा विचार भी आता है तो ग्लानि से मत भरो। या कोई शुभ विचार उठता है—कि तुम मानवता की सेवा करना चाहते हो—तो इसके कारण बहुत अधिक अहंकार से मत भर जाओ, ऐसा मत सोचो कि तुम बहुत महान हो गए हो।
केवल उछलता हुआ मन है। कभी नीचे जाता है, कभी ऊपर आता है।
यह तो बस ऊर्जा का बहाता हुआ अतिरेक है जो भिन्न-भिन्न रूप और आकार ले रही है। मन तो उमड़ कर बहता हुआ एक झरना मात्र है, और कुछ भी नहीं।
यही मन पशु बनकर कई स्वभाव धारण करने पर मजबूर कर , अनेको कर्म में बांध देता है , …… और गुरु यही नहीं चाहते कि उसका शिष्य ओर नया कर्म निर्माण करें ।
वो चाहेंगे कि मेरा साधक अकर्म रूपी बने ।
श्रीविद्या गुरु की यही तो पहचान है ।
गुरु पहले दिन से चाहेंगा की उसका शिष्य जितनी हो आत्मज्ञान की अवस्था मे आगे चले , ज्ञान ग्रहण कर अपने आपको …. स्थूल-सूक्ष्म-पर जगत में आगे बढ़े , वो अपने शिष्यो को अपनी संस्था बड़ी कराने में अथवा गुरु और उसकी संस्था का प्रचार नही करवाएंगा ।
गुरु भलीभाँति जानता है , साधक को स्थूल जगत के कार्यो में अटका दिया , …… भले वो कार्य आध्यात्मिक क्यों न हो ……. साधक को व्यक्तिगत आत्मा के आरोहण के लिए समय नही मिलेंगा ।
……… ओर , मनुष्य के पास जीवन कम है ।
साधक का पशुभाव से आरोहण के लेख में अंतिम चरण में , शिव-पार्वती स्वरूप भैरव – भैरवी का संवाद जो रुद्रयामल तंत्र में ‘ पशुभाव ‘सबंधित है , उसको देखेंगे ।
भैरव-भैरवी का संवाद सुनना जरूरी है ।
भैरवी कहती है ,
भैरवी ने कहा — हे सर्वज्ञ ! हे परमानन्द ! हे दयामय ! हे भयङ्कर ! अब मैं इसके बाद सर्वदर्शन की विद्या से युक्त कुलाचार की विधि कहती हूँ । हे शम्भो ! उसे सावधान चित्त हो कर श्रवण कीजिए । हे प्रभो ! सर्वप्रथम पशुभाव के व्रत में विघ्न पड़ने पर जिस विधान का पालन करना चाहिए उसे सुनिए ॥१ – २॥
कुलाचारविधि — नियम के भङ्ग में , नित्यकर्म में तथा नित्य पूजा में बाधा पड़ने पर मन्त्रज्ञ साधक को व्रत दोष की शान्ति के लिए एक सहस्त्र जप करना चाहिए ऐसे नित्य श्राद्ध सन्ध्यावन्दत पितृ तर्पण देवता दर्शन पीठदर्शन , तीर्थदर्शन , गुरु की अज्ञा का पालन , इष्टदेव का नित्य पूजन करने वाला पशुभाव में स्थित मनुष्य निश्चय ही महासिद्धि प्राप्त करता है ॥३ – ५॥
पशुओं के लिए प्रथम पशुभाव , वीरों के लिए वीरभाव तथा दिव्य साधकों के लिए दिव्यभाव इस प्रकार तीन भाव कहे गए हैं । जो साधक स्वकुलाचार से हीन किन्तु स्थिर चित्त है वह शीघ्र ही कुलाचार के प्रभाव से निष्फल अर्थ वाला हो जाता है ॥६ – ७॥
भैरव ने कहा — हे कमलमुखि ! हे कुलकामिनि ! पशुभाव में स्थित मनुष्य को किस प्रकार भगवती के चरण कमलों का दर्शन प्राप्त होता है ? यदि आपके प्रति मेरी दृढ़ भक्ति तथा मेरे प्रति आपका स्नेह है तो उसका प्रकार अर्थात् उसकी विधि विस्तारपूर्वक मुझसे कहिए ॥८ – ९॥
पशुभाव — महाभैरवी ने कहा — प्रातः काल में उठने पर अरुणोदयकाल से पूर्व ८ दण्ड रात्रिपर्यन्त पशुभाव का समय कहा गया है । प्रातःकालिक नित्य क्रिया के पश्चात् पशुभाव में संस्थित साधक पुनः शय्या पर बैठकर अपने शिरःकमल में स्थित सहस्त्रार दल में अपने गुरु का इस प्रकार ध्यान करे ॥१० – ११॥
ऊपरी संवाद से समझ आता है की , शास्त्र में पशुभाव का एक अलग ही महत्व है और साधना भी ।
ऐसे ही , वामकेश्वरतंत्र के अनुसार जन्म से 16 वर्ष तक पशुभाव, ५० वर्ष तक वीरभाव और आगे का समय दिव्य भाव का होता है।
भैरवी के संवाद में साधक को कुलचारिक नियम अर्थात , अपनी कुलदेवी कुलदेवता तथा पितरो पूर्वजो के रिवाज पर ध्यान देने के लिए कहा है ।
साधक को साधना में आगे बढ़ने के लिए कुल और पितरो के आशीर्वाद लगते हैं । अतः यह जरूरी है ।
कोई भी कुल ओर पूर्वजो का एक संस्कार होता है , जो किसी भी परिवार में आगे बढ़ता है । कुछ बुरे संस्कार भी है और कुछ अच्छे भी ।
अपने अच्छे रिवाजो के नियमो का जतन करो ।
अगर आप अपने कुल ओर पितरो का सन्मान कर सके तो श्रीविद्या साधना में आने वाले अनेक सूक्ष्म सूक्ष्म अनुचर शक्ति और श्रीललिता का सन्मान कर पाओगें ।
भैरवी का संदेश यह प्रतीत करता है कि , साधक साधना में आने से पहले दिनचर्या में सुधार लाए ।
एक जगह भैरवी , गुरु का सहस्रदल कमल में गुरु का ध्यान करने के लिए कहती हैं । श्रीविद्या साधना में साधक को पहले मृगी मुद्रा से गुरूपादुका मंत्र दिया जाता हैं , हर श्रीविद्या साधक इसे रोज नियमित रूप से गुरु का आवाहन करते हैं ।
इन सबकी आवश्यकता , साधक को जीवन मे पवित्रता लाती है । जीवन की पवित्रता ….. मन को पवित्र बनाती है , मन की पवित्रता… आत्मा को पवित्र बनाती हैं ।
व्यक्ति दिन दिन जितना प्रगतशील बनता जा रहा है , उतना जड़ संस्कार वाला बन रहा है । मानो पूर्वकाल में हमारे दादा दादी जो उनकी बातें सुनाते थे , वो आनंद आज कही खो गया ।
आजके मनुष्य में अत्याधिक पशुत्व आते चला जा रहा है । एक बिल्डिंग में द परिवार भी , कुछ व्यवहार तक ही अपना नाता सीमित रखते हैं ।
पूर्वकाल में देखो , गांवों में अभी भी दुकानदार बस लाभ ही नहीं कमाते और ग्राहक बस खरीदने ही नहीं आते। वे सौदे का आनंद लेते है।
मुझे अपने दादा की याद है। वह कपड़ों के दुकानदार थे। और मैं तथा मेरे परिवार के लोग हैरान थे। क्योंकि इसमें उन्हें बहुत मजा आता था। घंटो-घंटो ग्राहकों के साथ वह खेल चलता था। यदि कोई चीज दस रूपये की होती तो वह उसे पचास रूपए मांगते। और वह जानते थे कि यह झूठ है। और उनके ग्राहक भी जानते थे कि वह चीज दस रूपये के आस-पास होनी चाहिए। और वे दो रूपये से शुरू करते।
फिर घंटो तक लम्बी बहस होती। मेरे पिता और चाचा गुस्सा होते कि ये क्या हो रहा है। आप सीधे-सीधे कीमत क्यों नहीं बता देते। लेकिन उनके ही अपने ग्राहक थे। जब वे लोग आते तो पूछते की दादा कहां है। क्योंकि उनके साथ तो खेल हो जाता था। चाहे हमे एक दो रूपये कम ज्यादा देना पड़े,इसमे कोई अंतर नहीं पड़ता।
उन्हें इसमे आनंद आता, वह कृत्य ही अपने आप में आनंद था। दो लोग बात कर रहे है, दोनों खेल रहे है। और दोनों जानते है कि यह एक खेल है।
आधुनिकता के चक्कर मे नया साधक अपने मन-बुद्धि को उसने किसी न किसी मे जकड़ के रखा है ।
यह बारीकी से विषय इसलिए दे रहा हूँ , की ये साधक की आत्मपरीक्षण का विषय है ।
मेरे पास लोग आते है और कहते है, ‘हां साधना और ध्यान तो गहरा हो रहा है। मैं अधिक आनंदित हो रहा हूं, अधिक मौन और शांत अनुभव कर रहा हूं। लेकिन और कुछ भी नहीं हो रहो।’
और क्या नहीं हो रहा? मैं जानता हूं ऐसे लोग एक दिन आएँगे और पूछेंगे, ‘हां मुझे निर्वाण का अनुभव तो हो रहा है, पर और कुछ नहीं हो रहा है। वैसे तो मैं आनंदित हूं, पर और कुछ नहीं हो रहा है।’ …..
……. और क्या चाहिए। वह कोई लाभ ढूंढ रहा है। और जब तक कोई ठोस लाभ उसके हाथों में नहीं आ जाता। जिसे वह बैंक में जमा कर सके। वह संतुष्ट नहीं हो सकता। मौन और आनंद इतने अदृष्य है। कि तुम उन पर मालकियत नहीं कर सकते हो। तुम उन्हें किसी को दिखा भी नहीं सकते हो।
यदि तुम अपने मन के साथ खेल सको तो वह शीध्र ही समाप्त हो जाएगा। क्योंकि मन केवल तभी हो सकता है। जब तुम गंभीर हो जाओ । गंभीरता बीच की कड़ी है। सेतु है।
यह लेख , पशुभाव से आरोहण ….. हम समाप्त कर रहे हैं ।
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