Sri Vidya – Sadashiv Tatva (सदाशिव तत्व) 5

Sri Vidya – Sadashiv Tatva (सदाशिव तत्व) 5

◆ श्रीविद्या अंतर्गत सदाशिव तत्व का अभ्यास ◆
भाग : 5 ( अद्वैत सादाख्य कला )

श्रीविद्या अंतर्गत साधना जब एक हद तक बढ़ जाती हैं और साधक अपने ध्यान में ऊपरी जगत में आगे बढ़ता है । उसको शिव और परमशिव का भेद-अभेद समझ आता है , वह एक जगह स्थिर हो जाता हैं ।

इसी के माध्यम से साधक शुद्‍ध निष्कल परशिव में समरस होता है। निष्कल शिव मतलब निराकार तत्व को ओर बढ़ना ।

आजका लेख श्रीविद्या के साधना मार्ग में अत्यंत महत्वपूर्ण है । अनेको लोग अद्वैत श्रीविद्या करते है , पर अद्वैतता की ओर चलने का रास्ता ही नही पता । हजारो रुपये फीज देकर भी मूल ज्ञान नही पाते , भ्रमित साधना ओ में अपना मन लगाते हैं।
श्रीविद्या को समझने के लिए हर एक तत्व को समझना जरूरी है , गुरु के संगत ओर बातचीत जरूरी है ।
श्रीविद्या पहले गुरु आपको उसका आम्नाय बताएंगा , बिना इस विषय को जाने शिव के मूलतत्व का अभ्यास हो नही सकता । इस विषय मे आदिशंकराचार्य के आनंदलाहिरी , गौड़पाद जी के प्रपंचसार ग्रंथ , ओर प्रत्यभिज्ञा दर्शन में भी पढ़ सकते हैं ।

आजका लेख समझ आया तो ही सत्य अद्वैतता थोड़ी बहुत समझ आएंगी ।
आधी अधूरी साधना और गलत गुरु का चयन , साधक का जीवन बर्बाद कर देता है । यह आजके लेख से आपको समझ आएगा ।

अगर आप श्रीविद्या साधक है और पंचदशी का जाप करते है तो , आजके लेख के विषय मे आपके गुरु ने मार्गदर्शन किया होगा ।

पिछले लेख में आकृतियों को देख सदाशिव तत्व की स्तिथि कहा है , ज्ञात हुआ होगा । उनिको ध्यान रखते हुए , सदाशिव की सादाख्य कला को समझे ।

शिव के पाँच आम्नाय ही इन सदाशिव रूप कला से बने हैं । इन पाँच आम्नाय का आविर्भाव करने हेतु परमशिव ने अनाश्रित – अनाथ – अनंत – व्योप – व्यापक ऐसे पाँच रूप लेकर मूल शक्ति के साथ संयोग किया है।
इसके बाद आकृति में पराशिव कि स्तिथि देखे ओर अंत में महेश्वर …. ओर उससे निर्मित तीन तत्व , उसमे रुद्र यानी शिव तत्व भी है ।
ऐसे अनेको अनेको सूर्यमण्डल में यह तीन तत्व विराजमान है । पर इनकी मुलशक्ति कुछ और ही है । क्योंकि इन तीनो तत्वों की मृत्यु हो जाती हैं।
इसी हेतु मूल शिव जिसे कामेश्वर कहते है और मूल शक्ति जिसे कामेश्वरी कहते है …… ओर उनसे निर्मित अलग अलग विश्व के शिव-शक्ति का आविर्भाव होता है। समय पूरा होने पर ऐसे कई सारे विश्व बिग बैंग में फेंके जाते है नष्ट करणे हेतु । ओर फिर नए विश्व बनते हैं।

श्रीविद्या में हमे इनी तीनो को समझकर ,मूल तत्व की ओर प्रयाण करना होता है।

श्रीविद्या साधना में यही दृष्टिकोण विस्तार करना आवश्यक है । श्रीविद्या का गुरु आपको गलत भ्रम में नही उलझायेंगा ।

” सदाशिव तत्व ” को ही सादाख्य कला कहा गया है , इसीमे पाँच प्रकार है ।

यह ‘शिव-सादाख्य’, ‘अमूर्त सादाख्य’, ‘मूर्त सादाख्य’, ‘कर्तृसादाख्य’ और ‘कर्मसादाख्य’ के नाम से पाँच प्रकार का होता है।
इन पाँच सादाख्यों के पाँच पर्याय नाम हैं, जैसे शिव-सादाख्य का ‘सदाशिव’, अमूर्त सादाख्य का ‘ईश’, मूर्त सादाख्य का ‘ब्रह्मा’, कर्तृ-सादाख्य का ‘ईश्‍वर’ और कर्म सादाख्य का ‘ईशान’ है ।

आपको यह समझने के लिए हमारा पिछले लेखमाला का ” शिव से परमशिव की ओर ” विषय लेख पढ़ना होगा ।
जबतक मूल परमशिव आप नही समझते तबतक आप नश्वर शिव को परमशिव मानते रहेंगे ।

परशिव की जो पराशक्‍ति श्रीललिता परमेश्वरी है, उसको ‘शान्तयतीत कला’ भी कहते हैं।
उस पराशक्‍ति के दशमांश से सादाख्य का प्रादुर्भाव होता है। दशमांश मतलब दसवें अंश से अथवा दसवा भाग ।

 

पाच सदाशिव सादाख्य कला ….. और पाच आम्नाय इनका जुड़ाव देखिए । श्रीविद्या साधना के जो पाच आम्नाय है , जो परमशिव के मूल पाच मुख , जिनसे श्रीविद्या निकली …… उनका मूल स्वरूप देखिए ।

१) ‘शिव-सादाख्य’
पराशक्‍ति से उत्पन्‍न होने के कारण यह शुद्‍ध है। आकाश में स्फुरित विद्‍युत् के समान यह सर्वतोमुख और सूक्ष्म-ज्योतिस्वरूप है। यह विद्‍युत् वर्ण का है। सभी तत्वों के आलयभूत सदाशिव को ‘शिव-सादाख्य’ कहा गया है।

२) अमूर्त सादाख्य
शांति-कला की पर्यायवाचक जो ‘आदिशक्‍ति’ है, उस आदिशक्‍ति के दशमांश से अमूर्त-सादाख्य का प्रादुर्भाव होता है।
आदिशक्‍ति अमूर्त होने के कारण उससे उत्पन्‍न यह सादाख्य भी अमूर्त कहलाता है। कोटि सूर्य प्रकाश के समान इसका दिव्य तेज है और इसकी आकृति ज्योति के स्तंभ के समान है। प्रपंच की उत्पत्‍ति और विलय का स्थान होने के कारण इसको ‘मूलस्तंभ’ और ‘दिव्यलिंग’ भी कहा जाता है। इन लक्षणों से युक्‍त ‘ईश’ को ही ‘अमूर्त सादाख्य’ कहा गया है।

३) मूर्त सादाख्य
इच्छाशक्‍ति के, जो कि ‘विद्‍याकला’ भी कहलाती है, दशमांश से मूर्त-सादाख्य की सृष्‍टि होती है।
इच्छाशक्‍ति के मूर्तस्वरूप वाली (सूक्ष्म साकार) होने से उससे उत्पन्‍न यह सादाख्य मूर्त कहलाता है। अग्‍नि की ज्वाला के समान इसकी आकृति होती है। इसके ऊर्ध्व भाग में एक मनोहर वक्‍त्र है, जिसमें तीन नेत्र विराजमान हैं। यह सभी अवयवों से संयुक्‍त है। इसकी चार भुजाएँ हैं। ये चारों हाथ कृष्ण-हरिण, परशु, वरद-मुद्रा और अभय-मुद्राओं से सुशोभित हैं। इस प्रकार सभी सुलक्षमों से संयुक्‍त ‘ब्रह्मा’ को मूर्त सादाख्य कहा जाता है

४) कर्तृ-सादाख्य
प्रतिष्‍ठाकला की पर्यायवाचक जो ज्ञानशक्‍ति है, उसमें दशमांश से ‘कर्तृ-सादाख्य’ की उत्पत्‍ति होती है।
ज्ञान शुद्‍धस्वरूप है, अतः उससे उत्पन्‍न यह कर्तृ-सादाख्य भी शुद्‍ध स्फटिक की प्रभा के समान प्रतीत होता है। यह भी साकार है। इसके चार शिर, चार मुख, बारह नेत्र, आठ कान, दो चरण और आठ हाथ हैं। इन आठ हाथों में से दाहिने चार हाथों में क्रमशः त्रिशूल, परशु, खड्‍ग और अभय-मुद्राएँ हैं। उसी प्रकार बाएँ चार हाथों में क्रमशः पाश, नाग, घंटा और वरद-मुद्राएँ हैं। इस प्रकार सभी अवयवों से युक्‍त, सर्व आभूषणों से अलंकृत जो ‘ईश्‍वर’ है, उसी को कर्तृ-सादाख्य कहते हैं

५) कर्म-सादाख्य
क्रियाशक्‍ति के, जो कि निवृत्‍तिकला भी कहलाती है, दशमांश से कर्म-सादाख्य का उदय होता है। क्रिया को ही कर्म कहते हैं, अतः क्रियाशक्‍ति से उत्पन्‍न इस सादाख्य को कर्म-सादाख्य कहा गया है।
सृष्‍टि और संहार का निमित्‍त कर्म ही होता है, अतः इन कर्मों के स्वामी को कर्म-सादाख्य कहते हैं। इसका स्वरूप इस प्रकार वर्णित है- इस सादाख्य के पाँच शिर, पाँच मुख हैं। प्रत्येक मुख में तीन-तीन नेत्र विराजमान हैं। इसकी दश भुजाएँ और दो पाद हैं, जो कि दोनों कमलों पर विराजित हैं।
इसके दाहिने पाँच हाथों में क्रमशः त्रिशूल, परशु, खड्ग अभय मुद्रा और वज्रायुध हैं। बाएँ पाँच हाथों में क्रमशः नाग, पाश, अङ्कुश, घंटा तथा अग्‍नि हैं। इस सादाख्य के दस हाथों के दस प्रकार के चिह्न उसके दशविध उत्कृष्‍ट गुणों का या शक्‍तियों का द्‍योतन करते हैं, जैसे त्रिशूल से सत्व आदि त्रिगुणों का, परशु से शक्‍ति का, खड्‍ग से प्रताप का, वज्रायुध से दुर्भेद्‍य सामर्थ्य का तथा अभय-मुद्रा से अनुग्रह-शक्‍ति का द्‍योतन होता है। इसी प्रकार वाम भाग के हाथों में रहने वाले नाग से विधि अर्थात् आज्ञा शक्‍ति का, पाश से मायाशक्‍ति का, अङ्कुश से विवरण अर्थात् आवरणरहितत्व का (शिव के अपने स्वरूप का आवरण नहीं रहता है), घंटा से नादशक्‍ति का एवं अग्‍नि से संहार-सामर्थ्य का द्‍योतन होता है। इन दस प्रकार के उत्कृष्‍ट गुणों से युक्‍त तथा दिव्य गंध, दिव्यमाला, दिव्य वस्‍त्रों से अलंकृत जटा-मुकुट धारी, शांतस्वरूप के और मंद मुस्कान वाले ‘ईशान’ को ही कर्म-सादाख्य कहते हैं ।

इसलिए श्रीविद्या साधना में आम्नाय का पता होना जरूरी है , जो साधना के कुल का कार्य करती हैं ।

इन सभी तत्वों को समझने के लिए पहले सही रूप से श्रीविद्या की साधना प्राप्त होनी जरूरी है , अतः गुरु से बातचीत उतनी ही जरूरी है । क्योंकि , देवी साधक के पास आकर ज्ञान नही बरसाएंगी ।

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