SriVidya – Nyasa Vidya 1

SriVidya – Nyasa Vidya 1

◆ श्रीविद्या अंतर्गत अभ्यास के मुख्य अंग ◆
?न्यासविद्या  भाग : १ ?
     देवतत्वं प्राणतत्वं बिंदुतत्वं च सुंदरी ।
    ज्ञानतत्वं शक्तितत्वं योनितत्वं तथैव च ।
    नवतत्वमिदं प्रोक्तं कामधेनुमतं प्रिये ।।
  ” शाक्तानंदतरंगिनी ” इस भगवती के पवित्र ग्रंथ का छोटासा श्लोक अपने आप मे भी आदि परमेश्वरी की अगाध शक्ति का संशिप्त विवरण करने में समर्थ प्रतीत होता है।
    तुम देवो में भी हो और संपूर्ण प्राणियों के श्वास रूप प्राण में भी हो, श्रीयंत्र(शिवलिंग) रूपी बिंदु का परमतत्व भी तुम हो और संपूर्ण परा-अपरा-परापरा जगत में समाहित दिव्य ज्ञान भी तुम हो। …..अंतिम वाक्य में नवतत्वं कहा है , यानी श्रीयंत्र रूपी जो सृष्टिचक्र चल रहा है वो नव चक्रों में चलित है ।
    श्रीविद्या की साधना अपने आप मे एक पीएचडी जैसी है। श्रीविद्या साधना , साधक को मूलाधार से हिरण्यगर्भ के सङ्कल्प तक मार्ग दिखाती है , जीवन के हर पहलू को पहचानने की क्षमता देती हैं, सनातन धर्म को हिन्दू-इस्लाम-ख्रिचन-बुद्ध-जैन में विभाजित किया गया , इसके साथ सनातन धर्म का ज्ञान भी विभाजित हुआ।
    श्रीविद्या के अंतरंग में जब आप गुरु के साथ रूबरू होकर , गुरु के साथ बैठकर तर्कशुद्ध रीतिसे ज्ञान अर्जित करेंगे तब आपको एक बात का आभास होगा।
   श्रीविद्या ही सनातन धर्म है और सनातन महाशक्ति है । श्रीविद्या ही स्थूल जगत में सनातन धर्म है , वैसे ही सूक्ष्म जगत में सनातन विद्या भी है।
    पर इस महत्वपूर्ण ज्ञान के अंग को समझने के लिए योग्य साधना के साथ योग्य ज्ञान की जरूरत है । श्रीविद्या जैसी पवित्र विद्या को ठीकसे समझने के लिए गुरुकुल में गुरु के साथ रहना पड़ता है । वो एक संस्कार है , कला है , मन को उस अवस्था मे रखने की तरकीब है , आत्मा को पराजगत में पहुचाने का पथ है , अपने कुल-कुलाचार को प्रसन्न करने का साधन हैं ।
      हम लेखों की इस श्रृंखला में इसीके गहराई को समझेंगे । श्रीविद्या का अत्यंत महत्वपूर्ण ज्ञान जो कोई श्रीविद्या के गुरु अपने शिष्यों को नही बताते।
      श्रीविद्या के इस अंग में हम न्यासविद्या ओर त्रिपुरोपासना की पहचान करेंगे। इसमे हम वर्ण बीज मंत्र ऋषि ,छंद ,देवता ,शक्ति ,कीलक, दिशा ,स्तोत्र ,पिंडस्थ चक्र , पीठ, गणेश, ग्रह ,नक्षत्र, योगिनी , राशी ई देखेंगे।
      श्रीललिता सहस्रनाम , देवी खड़गमाला , श्रीललिता त्रिशती , श्रीबाला कवच अथवा खड़गमाला , श्रीषोडशी कवच ई आप पढ़ते है तो उसमें शुरवाती में ऊपरी शब्दो को आपने देखा होगा और पढा होगा।
       कभी आपने सोचा है , इसकी आवश्यकता क्या है?
       आपके श्रीविद्या के गुरु ने इसे बताया आपको , की
       यह क्या है ?
मेने पहले वाक्य में ही कहा था , श्रीविद्या अपने आप मे पूर्ण है और अगर आप श्रीविद्या की दीक्षा साधना कर रहे हैं तो उसका गहराई से ज्ञान ले।
क्योंकि देवी ज्ञान देने नही आएंगी ।
    श्रीविद्या में आगे बढ़ते हुए आपको सृष्टि न्यास, स्थिती न्यास, ऋष्यादिन्यास, कामेश्वर्यादी न्यास , करन्यास , मुलविद्या न्यास, हृदयादि न्यास, षोडशाक्षरी न्यास, महाषोडशाक्षरी न्यास, अक्षरन्यास , सँहारन्यास, लघु शोढा न्यास , संमोहन न्यास , स्तोत्र न्यास , मातृका न्यास, अंतरमातृका न्यास , बहिरमातृका न्यास , आत्मरक्षा न्यास , वाग्देवता न्यास , गणेश न्यास, बहीश्चक्र न्यास , अन्तश्चक्र न्यास , ग्रहन्यास, नक्षत्र न्यास , राशि न्यास , पीठ न्यास , योगिनी न्यास ई का परिचय होना चाहिए ।
     इसीका ज्ञान इस लेखमाला से आपको मिलेंगा।
श्रीविद्या की अद्वैतता समझने से पहले द्वैतता समझे। ऊपर दिए न्यास की महत्त्व द्वैत ओर अद्वैत जगत दोनों में है। हमारे श्रीविद्या सञ्जीवन साधना पीठ अंतर्गत साधको को श्रीविद्या साधना के अलग अलग चरणों मे जो बहुत सारे अंगों की पहचान करवाई जाती है , उसमे से यह एक है।
  ” देव एव यजेदैवं नादेवो देवमर्चयेत। “
 जो देवता हो , वही देवता की पूजा करे। जो देवता बन न पायो वो देवता की पूजा न करे।
     ” अविष्णु: पूजयेविष्णु: न पूजाफ़लभाग्भवेत। “
 जो विष्णु बन कर विष्णु की पूजा करता है , वह साक्षात महाविष्णु कहलाता है।
तातपर्य ये है की , श्रीविद्या जैसी उच्चतम साधना में साधक को अपने आपको देवी जैसा बनाना पड़ता है।
     आप सोचेंगे कि देवी जैसा बनना या विष्णु जैसा बनना यानी उसके कपड़े और पहनावा वेसा करना ?
     नही नही ……. इसके लिए जिस तत्व की साधना आप कर रहे हैं उस तत्व को गुरु से पूर्ण समझ लीजिए।
      अगर आप विष्णु की साधना कर रहे हैं तो उसका सात्विक तत्व , उसके गुण अपने अंदर लाने चाहिए। उसी तरह श्रीललिता परमशक्ति की श्रीविद्या साधना में उसके जैसा बनने के लिए अपने शरीर को अंत:बाह्य योगिनी यक्षिणी अथवा उसके गणिका जैसा बनना चाहिए।
       पशु के विचार पशु जैसे होते हैं , वेसे मनुष्य के विचार मनुष्य जैसे होंगे। और साधना में किसी देवता के घर अर्थात चक्रमण्डला में प्रवेश करने पर साधक के विचार वेसे ही उच्चतम स्तर के होने चाहिए।
       श्रीकृष्ण के गोलोक में प्रवेश करने से पहले अर्जुन को गोपिका बनना पड़ा था । वैसा ही है ।
        इसलिए श्रीविद्या साधक को न्यासविद्या आणि चाहिए। यह विद्या साधक में उस परमशक्ति को पहचानने में एक Spiritual machurity लाती है।
       अगर मेने आपको न पहचानते हुए कहा की , में आपके माता-पिता ओर आपके घरवालों का स्वभाव जानता हूँ , उनके विचार जानता हूँ। ….. आप कहेंगे , ये तो एकदम झूठ है । जिसने आजतक मुझे नही देखा वो मेरे माता-पिता , घरवालों को कैसे पहचान के उनके बारे में बोल सकता है। वेसे इसमे दो लोगो का अंतर हजारो किमी है।
        एकदम सेम भावना श्रीविद्या में है। आपने श्रीललिता को सिर्फ तस्वीर में देखा है , श्रीयंत्र पूजा में रखके एक मानसिक कल्पना कर रहे हैं। श्रीविद्या में 90% लोग भावनिक-मानसिक कल्पनाओं में जीते हैं।
सिर्फ इतना होने से आप श्रीललिता की गणिका नही बन सकते। अंबानी के घर बहार भिक मांगने से कोई अंबानी नही बन जाता वेसे ही पंचदशी मंत्र दीक्षा लेने पर अथवा घर मे हर दीवार पर श्रीयंत्र की तस्वीर लगाने से , सोलह सोलह श्रीयंत्र रखने से घर ” मणिद्वीप ” नही बनता।
         क्योंकि हमारी सोच में ओर उनकी सोच में अंतर है। पहले श्रीविद्या में सोच बदलो ।
       प्रेक्टिकल जीवन में देखिए , कोई हिन्दू लड़की जैन परिवार में , या कोई सिंधी लड़की रजपूत परिवार में शादी होकर गई । …….. क्या वो एक दिन में या एक महीने जैन या रजपूत बन पाती है? वो परंपरा रिवाज उनकी सोच धीरे धीरे उस लड़की के अंदर उतरती है।
       वेसे ही श्रीविद्या में श्रीललिता की शक्ति को पहचानने के लिए हमारी व्यक्तिगत सोच कितनी बदलनी पड़ेंगी? कभी इस विषय मे सोचा है? इसलिए श्रीविद्या में कोई अनुभूति नही होती। और श्रीविद्या के गुरु , साधक को अधूरे ज्ञान के आधार पर भटकाते रहते हैं।
        समझो कि मैं अगर आध्यात्मिक सातवीं स्थिति को उपलब्ध हो जाऊं, तो यह मेरी बात है कि मैं जानूं कि मैं शून्य हूं लेकिन तुम? तुम तो मुझे जानोगे कि एक व्यक्ति हूं। और तुम्हारा यह खयाल कि मैं एक व्यक्ति हूं आखिरी पर्दा हो जाएगा। यह पर्दा तो तुम्हारा तभी गिरेगा जब निर्व्यक्ति से तुम पर घटना घटे। यानी तुम कहीं खोजकर पकड़ ही न पाओ कि किससे घटी, कैसे घटी! कोई सोर्स न मिले तुम्हें, तभी तुम्हारा यह खयाल गिर पाएगा; सोर्सलेस हो। अगर सूरज की किरण आ रही है तो तुम सूरज को पकड़ लोगे कि वह व्यक्ति है। लेकिन ऐसी किरण आए जो कहीं से नहीं आ रही और आ गई, और ऐसी वर्षा हो जो किसी बादल से नहीं हुई और हो गई, तभी तुम्हारे मन से वह आखिरी पर्दा जो दूसरे के व्यक्ति होने से पैदा होता है गिरेगा।
       तो बारीक से बारीक फासले होते चले जाएंगे। अंतिम घटना तो प्रसाद की तभी घटेगी जब कोई भी बीच में नहीं है। तुम्हारा यह खयाल भी कि कोई है, काफी बाधा है— आखिरी। दो हैं, तब तक तो बहुत ज्यादा है—तुम भी हो और दूसरा भी है। हां, दूसरा मिट गया, लेकिन तुम हो। और तुम्हारे होने की वजह से दूसरा भी तुम्हें मालूम हो रहा है। सोर्सलेस प्रसाद जब घटित होगा, ग्रेस जब उतरेगी, जिसका कहीं कोई उदगम नहीं है, उस दिन वह शुद्धतम होगी। उस उदगम—शून्य की वजह से तुम्हारा व्यक्तित्व उसमें बह जाएगा, बच नहीं सकेगा। अगर दूसरा व्यक्ति मौजूद है तो वह तुम्हारे व्यक्ति को बचाने का काम करता है, तुम्हारे लिए ही सिर्फ मौजूद है तो भी काम करता है।
        यही भेद ही नष्ट करना है , जो शरीर भाव पर हैं ।
        श्रीविद्या में इसलिए साधक को हमेशा श्रीविद्या के न्यास करने का प्रकरण समाविष्ट किया है। न्यास जैसे बाह्य है वेसे आंतर भी है।
        श्रीविद्या के ज्ञानार्णवतंत्र के अनुसार  –
    श्रीविद्या में न्यास  का अर्थ है – स्थापना। बाहर और भीतर के अंगों में श्रीललिता के इष्टदेवता और मन्त्रों की  स्थापना ही न्यास है। इस स्थूल शरीर में अपवित्रता का  साम्राज्य है , इसलिए इसे श्रीयंत्र की पूजा का अधिकार नहीं है । जबतक श्रीविद्या साधक शुद्ध एवम दिव्य न हो जाये।
     श्रीविद्या के इतिहास में एक कथा है।
 श्रीविद्या षोडशी के अत्यंत दिव्य गुरु षोडशानंद नाथ थे । एक बार अपने से बुजुर्ग आध्यत्मिक साधक ने उनसे कहा की आप किसीको प्रणाम नही करते। तो उनोने जवाब दिया , अगर मेने ऐसे ही किसी व्यक्ति को प्रणाम किया तो उसकी वही पर मृत्यु हो जाएंगी।  यह बात सुनकर , वो व्यक्ति मानने को तयार नही।  फिर एकदिन फिरसे उसी व्यक्ति ने यही बात कही , षोडशानंद जी ने उन्हें सिर झुकाकर प्रणाम किया । फिर क्या , उस व्यक्ति की मृत्यु वही हो चुकी ।
      ऐसा क्यों? षोडशानंद श्रीविद्या के महाशोढान्यास में पारंगत थे और उन्हें श्रीललिता प्रसन्न थी। जब साधक एक उच्चतम साधना से वो स्वरूप प्राप्त करता है , तब उसका शिर अयोग्य अथवा उस अवस्था को न पहुचे हुए व्यक्ति के सामने नही झुकना चाहिए।
       न्यासविद्या में इतनी शक्ति होती हैं।

 || Sri Matre Namah ||

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