SriVidya – Nyasa Vidya 2

SriVidya – Nyasa Vidya 2

अभीतक आप साधक , श्रीविद्या में न्यासविद्या का महत्व समझ चुके होंगे।
     ‘अस’ धातु में ‘नि’ उपसर्ग लगाने पर न्यास शब्द बनता है। अस धातु मतलब क्षेपण करना और स्थापना करना।
   न्यासं निवर्तयेददेहे शोढा न्यासपुर:सरं ।
  गणेशै: प्रथमौ न्यासो द्वितीयस्तु ग्रर्हैमत: ।।
  श्रीविद्या में न्यास शरीर के पिंड की ब्रम्हांडीकरण की भावना है। यह श्रीललिता के साथ तादात्म्य की साधना है। इसके प्रयोग से साधना में सफलता शीघ्र मिलती हैं। न्यास के प्रयोग से देवता का साक्षात्कार जल्दी होता है।
     साधना का चरमलक्ष्य है , अद्वैतावस्था । न्यास उसकी पृश्ठभूमि है।
     बहुत सारे साधक खड़गमाला , ललिता सहस्रनाम का पाठ करते है , पंचदशी मंत्र का सिर्फ रटन करते है। परंतु , मूल शक्ति उठती नही है और न इतने पाठ करके अनुभव होता है।
     अगर इसी पाठ से पहले मातृका न्यास, पीठ न्यास , गणेश न्यास , नक्षत्र न्यास , योगिनी न्यास , रश्मीमाला , लघु शोढा न्यास करे , फिर आप सोच भी नहीं सकते की कितनी दिव्यता प्राप्त होगी। कुछ ही दिनों में शक्ति वहन आपके शरीर में होने लगेगा और देवी का साक्षात्कार रूपी आभास भी । तथा खड़गमाला या कवच सिद्धि भी जल्दी प्राप्त होती है।
      श्रीविद्या के ये अंतर्गत गुप्त रहस्य है , जो गुरु के साथ उसके सान्निध्य से प्राप्त किये जाते हैं।
      श्रीविद्या के न्यास साधक को आभिचारिक क्रिया , बाधिक दोष , किसी भी अपघात , नकारात्मक ऊर्जा से बचाते है । दैनंदिन जीवन में अगर श्रीविद्या के न्यास किए तो एक कवच शरीर के ऊपर तयार होता है। साधक के ऊपर कार्मिक दोषों का प्रभाव भी कम होता है। घर में भी एक पवित्रता आती हैं।
       आजकल के गुरु जो श्रीविद्या के नामपर श्रीविद्या की जो मुख्य विषय है , उसका ज्ञान देना तो दूर …. साधको को गलत चीजो में बांधकर रख रहे है। गलत साधना करने से और संस्थाओं के प्रोग्राम में बांधकर रहने से मुख्य विषय का ज्ञान लेने की सोच ही चली जाती हैं।
कुछ गुरु श्रीविद्या पंचदशी के ही लेवल 1 2 3 4 निकाले है , बल्कि एक बार पंचदशी दीक्षा लेने पर फिरसे वही दीक्षा लेना मतलब अपने कुलाचार की बर्बादी ओर आत्मा का परमात्मा से व्यभिचारी भक्ति करना।
       योग्य गुरु से श्रीविद्या की बेसिक चीजे सिख ले।
      श्रीविद्या में न्यासों को अत्यंत महत्व है। यह सो~हमस्मि की अनुभती की साधना है।
       द्वैत में जिस तरह न्यास है , उसी प्रकार अद्वैत में भी आंतरिक न्यास है , पर यह गुप्त विधान है। इसमें स्थूल शरीर को न्यास नही दिए जाते बल्कि सूक्ष्म शरीर को न्यास दिए जाते हैं।
        श्रीविद्या साधना पद्धति में प्राथमिक अवस्था में करन्यास ओर अंगन्यास होते हैं। दोनों हातो की पाँचो उंगलियों को विशिष्ट क्रिया से मंत्रो का उच्चारण करते है । तथा अंगन्यास में शरीर के ह्रदय शिखा शिर को  मंत्रोच्चार से स्पर्श करके उर्जित किया जाता है।
         वस्तुतः पाँचो उंगलियाँ आकाश वायु अग्नि जल पृथ्वी का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन पाँचो का ही ऋण-धन क्रम से दाहिना-बाया तथा उपर-नीचे (उर्ध्वंग-निम्नांग) हाथ पैर के प्रशाखो के रूप में पंचतत्वों का नियंत्रण होता है और ब्रम्हांड की प्रतिकृति मानव शरीर (पिंड) की सार्थकता सिद्ध होती है।
      ऋण-धन के आपसी वैदिक मिलन से ही ऊर्जा प्रवाहित होती है। ओर यही सन्तुलन रखना ही न्यास है।
      ब्रम्हांडीय ऊर्जा का पिंडिय ऊर्जा में अवतरण का एहसास।
     इसके विषय मे ओर गहराई से अगले लेख में मिलेंगे।
     अतः आपको धीरे धीरे यह समझ आएगा की सिर्फ ब्रम्हांडीय ऊर्जा बोलकर मन की कृत्रिम अवस्था से ऊर्जा वहन नही होती। शिव ने एक उसका भी एक विधि विधान बनाया है।
       मनुष्य की देह से लेकर पृथ्वी की सतह और ऊपरी जगत तक न जाने कितनी सारे उर्जा के वलय हैं । आपने तो पृथ्वी के आसपास की ही ऊर्जा नही देखी है , आप सिर्फ अपनी ही शरीर की उर्जा को महसूस कर रहे हैं , और उसे ब्रम्हांड की उर्जा कह रहे हैं । कितने बड़े भ्रम में है आप ,……… अगर यूनिवर्सल ऊर्जा सच मे आपके शरीर में आई तो आपके आसपास वासनिक बाधिक आत्माओं का मेला लगा हुआ है अदृश्य में वो ही आपको दिखने लगेंगा । आपके पास दिव्यत्माऐ आएंगी , वो पवित्र आत्माऐं आपसे बात करेंगी । यूनिवर्सल ऊर्जा सचमुच शरीर मे आई तो आप जहाँ जांएगे वह के भूमि दोष पितृश्राप काले जादू के बंधन भी दूर हो जाएंगे ।
               तो सोचिए , क्या सच में ये सब होता है ? आपके गुरु आपको गलत भ्रम में डालते रहेंगे और आप उसीमे डूबे रहंगे । आपके जीवन का टाइम बहुत कम है , यहाँ के 60-70 साल जीके आपको ऊपर हजारो साल किसी वासनामय शरीर मे निकालने है । अपने आत्मा के करियर के लिए ये सब कर रहे हैं , बल्कि आत्मा होती कहा है ? उसका बेसिक ज्ञान नहीं ।
               श्रीविद्या में गुरु हमेशा ये सही ज्ञान अपने पास बिठाकर देता हैं । श्रीविद्या में गुरु जानता है कि ऊपरी जगत कैसा है , गुरु भी और शिष्य भी बहुत कम समय के लिए इस मनुष्य रूप में रहेंगे । फिर श्रीविद्या साधना में कभी गुरु भ्रमित साधना में नही डालेंगा और न पैसे की लालच के लिए शिष्यो को इकठ्ठा करेंगा ओर न ही अपने शिष्यो को समाज से लोगो पर दबाव बनाकर अपनी संस्था में जुड़ने के लिए कहेंगा ।
            बिनस्वार्थ के गुरु तो बहुत ही कम होते हैं और उनके शिष्य भी अत्यंत कम होते ।
            ऐसे गुरु के शिष्य क्यों कम होते हैं ? आप सोचिए आप छोटे थे तो आपको समाज में जिम्मेदार व्यक्ति बनाने के लिए आपके मातापिता ने कितने साल आपपर खर्च किए ?
            यही श्रीविद्या में है , गुरु अपने बहुत साल उस शिष्य पर देता हैं व्यक्तिगत रूप में , की वो भौतिक समाज में नही ….. बल्कि ऊपरी जगत में जिम्मेदार पवित्र आत्मा बनें ।
            यही पवित्र शरीर बनाने के लिए आपको श्रीविद्या में न्यास दिए जाते हैं ।
 ऋषिच्छन्दों देवतानां विन्यासेन विना यदा ।
     जप्यते साधको~प्येष तत्र तन्न फलं लभेत ।।
  शिव ने स्वतः यामल तंत्र में कहा है , ऋषि छंद देवता बीज शक्ति कीलक यह साधना के अपरिहार्य अंग है ओर इनके बिना की हुई पूजा निष्फल होती है।
      धनं यशस्यमायुष्यं कलकल्मषनाशनं ।
      य: कुर्यान्मातृकान्यासं स एवं श्रीसदाशिव: ।।
  यह शाक्तानंदतरंगिणी का श्लोक है। जिसमें स्वत शिव कहते हैं , जो न्यास करता है उसे साक्षात सदाशिव कहा गया है।  श्रीविद्या न्यास के फल के विषय मे कहा गया है कि ऐसा साधक पशु होकर भी पशुपति बन जाता है।
     श्रीविद्या में ‘ न्यास ‘ के महत्व का आभास आपको हुआ होगा।
       पिछले लेख में हमने करन्यास का महत्व देखा। अभी थोड़ा अंगन्यास पर दृष्टि डालेंगे। अंगन्यास में हृदय शिर शिखा कवच बनाना और अस्त्राय फट का भाग होता है।
     हृदय का न्यास , देवता को भक्ति के भाव से बांधता है। प्रेम और भक्ति का मूल स्थान वही है। इसीमे स्वाहा शब्द का भी उल्लेख आता है , अर्थात आत्मा को शीर्ष भाग में स्थापित कर स्वयं के अहं को समर्पित करना।
    वषट-शिखा प्रदेश , मनुष्य के सर पर जो शिखा है वह एक एंटेना है। दैवी तेज वही से शरीर के भीतर आता है। यह न्यास मंत्र दैवी तेज को हमसे शिखा प्रदेश से जोड़ता है।
     हूं-कवच संबन्धी न्यास मंत्र है। शरीर को सुरक्षित करने की भावना इसमे है। यह मंत्र सुरक्षा घेरा बनाता है।
 इसमे हृदय के सामने क्रॉस बनाया जाता है।
     वौषट-नेत्रक्षेत्र स्थान का न्यास मंत्र है। भ्रूमध्य स्थित सुप्त नेत्र के साथ तीन नेत्र होते हैं। इसे उसकी दिव्य सुप्त शक्ति का चैतन्य दिखाने हेतु आवेदन दिया जाता है। इसमे तीन उंगलियों का प्रयोग है , मध्यमा उंगली अग्नि की प्रतीक है और तीसरा नेत्र भी अग्नि का प्रतीक है। तर्जनी दाहिनी आँख को ओर अनामिका बायीं आँख को स्पर्श करते है।
     हुम् – अस्त्राय फट टाली अथवा चुटकी बजाना। मतलब अपने आसपास की नकारात्मक ऊर्जा को इस न्यास मंत्र से जलाया जाता है। इस न्यास में दाहिने हात को घड़ी के विरुद्ध दिशा से शरीर के ऊपर से घुमाया जाता है और ” चटकार ” की आवाज निकलती है। इसमे
 मध्यमा (अग्नि) ओर तर्जनी (वायु) उंगली का प्रयोग होता है, धातव्य है की वायु की मैत्री से अग्नि प्रचंड होता है। तातपर्य , त्रिविध तापो को जलाया जाता है।
    यह प्राथमिक स्वरूप के न्यास है।
हमे आगे श्रीविद्या के ऊपरी स्तर के न्यास का महत्व देखना है। जो कि अतिपवित्र है ।
    जैसे एक है ” मातृका न्यास “। ॐ से विभाजित 51 बीजाक्षर अर्थात मातृका ओ को अपने शरीर मे स्थापित करना । मातृका ओ को वर्ण भी कहते है । श्रीविद्या में ये विषय थोड़ा विस्तृत है और अत्यंत महत्वपूर्ण होकर , साधक को इसका ज्ञान होना चाहिए। हम इसके विषय मे एक अलग लेख का प्रसरण करेंगे ।
     श्रीविद्या साधना में मातृका न्यास का शक्तितत्व ओर शिवतत्व का अभेद समझना जरूरी है। मातृका मूल पराशक्ति की ध्वनि नादों की अभिव्यक्ति है। मातृका वर्णो की अपनी स्वतंत्र सृष्टि है। 51 बीजाक्षर वर्णो की सभी व्यष्टि शक्तियां एक होकर श्रीमहात्रिपुरसुन्दरी स्वरूप हो जाती है।
    ‘ अ ‘ वर्णमाला का प्रथम अक्षर है और ‘ ह ‘ अंतिम , अ – शिव है तथा ह – शक्ति , अतः सभी मातृकावर्ण शिव-शक्ति है।
      इसलिए कहा गया है की ,
  सर्वे वर्णात्मका: मंत्रा: ते च शक्तयात्मका: प्रिये।
       जब साधक का शरीर पूर्ण रूप मातृकावर्ण नही हो जाता , तबतक श्रीयंत्र में प्रवेश नही होता । बहुत लोगो के घर श्रीयंत्र होता हैं , और लोग कुंकुम भी चढ़ाते हैं , कोई कोई सहस्रनाम तथा खड़गमाला से कुंकुम चढ़ाते हैं परन्तु उसका फल निम्न स्तर का होता हैं , उससे बहुत बड़ी शक्ति का प्रभाव नही बढ़ता । इसलिए घर मे रखें श्रीयंत्र रूपी मशीन डेड अर्थात मृत शरीर कह सकते हैं , जिसमें जान नहीं ।
        श्रीयंत्र में जान अथवा संजीवनी तभी पैदा हो सकती हैं , जबतक साधक का शरीर देवीमय अथवा देवी के अनुचरी शक्तियाँ योगिनी यक्षिणी मातृका आदि जैसा नही बन जाता । इसलिए मैंने पिछले भाग कही गई , रश्मिमाला , गणेश ग्रह , नक्षत्र , मातृका , लघुशोढा , महशोढा आदि न्यास से साधक देवीमय बनना चाहिए । तभी जाकर वो श्रीविद्या श्रीयंत्र में प्रवेश कर नवावर्ण पूजन सिद्ध कर सकता है ।
         ये क्रियाए ऐसे है , जैसे जितनी बड़ी बीमारी होती है उतनी बड़ी दवा का केमिकल act करता है , जितना बड़ा काम उतना बड़ा बजेट , वेसे ही श्रीयंत्र श्रीविद्या के लिए पहले कितना बड़ा विस्तरित दृष्टिकोण चाहिए , उसकी कल्पना ही काफी है ।
          साधक शरीर को ये न्यास अत्यंत जरूरी हैं , इसके बिना श्रीयंत्र का पूजन होता ही नहीं और इसके बिना की हुई पूजा मानो बस व्यक्ति की कल्पना है ।
         श्रीविद्या साधना में पहले लोगो को आम्नाय ही पता नहीं होता , की उनको जो दीक्षा मिली है उसका आम्नाय क्या है । क्योंकि आम्नाय तो आपका कुल निश्चित करता है । जैसे बाप अपने बेटे को उसका कुल बताता है , वेसे ही श्रीविद्या में गुरु अपने शिष्यो को आम्नाय बताता है ।
          शिव स्वयं कहते हैं , अगर कोई आम्नाय जाने श्रीविद्या जैसी पवित्र साधना करता हैं , उसको में ही क्या संसार का कोई भी देवी देवता प्रसन्न नही होता और ऐसे व्यक्ति श्राप के भागी होते हैं ।
         ऐसे गहनतम विषयो के ज्ञान के लिए गुरु की संगत चाहिए ।
          आपने कभी सोचा है ? कि आपको कुछ बड़ी बीमारी हुई है और डॉ को फोन से दवा पूछ रहे हैं , क्या ये संभव है ? आप कोई धंदा कर रहे हैं , आपने मन से कल्पना की , की माल – सामान कस्टमर के पास पहुँचा , क्या ये संभव है ?    आपका बच्चा छोटा है , आपने सिर्फ मन से कल्पना की , की आपका बच्चा बिना स्कूल गए इंजीनियर अथवा डॉ बन चुका , क्या ये संभव है ? क्या आप मेडिकल कॉलेज में एडमिशन लिया है , घर बैठकर विद्यार्थी ऑनलाइन पाँच साल की डिग्री सिख सकता है , क्या ये संभव है ?
          अगर ये सारी चीजें अत्यंत गंभीर हैं और इस विषय मे आप अत्यंत सीरियस है । फिर श्रीविद्या में श्रीयंत्र की शक्ति कुण्डलिनी के बहार तक है जो आप जानते भी नहीं । फिर आपको उस शक्ति को समझने के लिए , कितनी मेहनत है और सही गुरु के संगत की कितनी आवश्यकता है ।
          छोटी साधनाओ में और श्रीविद्या में बड़ा अंतर है । मानो किसीका दस करोड़ का व्यापार है और वो हजार करोड़ के मालिक जैसा वर्तन कर रहा हो । नेचरोपैथी का चार महीने का कोर्स करने वाले लोग अपने नाम के आगे डॉ लगाते हैं और आठ साल की लंबी पढाई करने वाले मेडिकल विद्यार्थी भी डॉ लगाते हैं , दोनों ने भी डॉ पदवी लगाई है , परंतु सही ज्ञान और इलाज कौन कर सकता है , ये आप भी जानते हैं ।
          आजकल श्रीविद्या में यही हुआ है , अनेक लोग दस बारह सालो से श्रीविद्या साधना करते हैं परंतु इतने सालों तक ऐसे लोगो को श्रीविद्या के मुख्य विषय आम्नाय , गुरूपादुका , न्यास , काम्य प्रयोग के लिए कोनसी देवता चाहिए , मोक्ष अद्वैतता के लिए द्वदशान्त क्या है , पंचमवेद क्या है , कृत्याए क्या है , सहस्रार में सच मे मोक्ष है ? कुण्डलिनी की साईझ क्या है ? आज्ञा चक्र ओरोजिनल कहा है ? ऐसे बहुत सारे सवालों के जवाब तक नहीं है ।
         क्योंकि , गुरु की संगत ही नहीं । आप सिर्फ पैसे भरके नेचरोपैथी जैसी चार महीने का कोर्स कर सिर्फ अपने नाम के आगे डॉक्टर पद लगाना चाहते हैं । पर दूध का स्वाद छाछ को नही आता और छाछ कभी मलाई नही बनता ।
         श्रीविद्या यही है , न्यास को समझो अपना शरीर पवित्र करो ।

 || Sri Matre Namah ||

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