◆ श्रीविद्या अंतर्गत अभ्यास के मुख्य अंग ◆
न्यासविदया भाग : 5
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साधकवर्ग आपने पिछले लेखों में श्रीविद्या के महत्वपूर्ण अंग न्यासविद्या को समझा , अगर आप श्रीविद्या सिख रहे तो गुरु से इसका ज्ञान ले और गुरु से प्रत्यक्ष जाकर अपने प्रश्न पूछे ।
अभी हम ओर एक न्यास को देखेंगे । इसका भी श्रीविद्या अंतर्गत अंतर्भाव होता है ।
महाशक्ति-न्यास की महिमा का वर्णन करते हुए भगवान शिव मॉं पार्वती को बताते हैं-
‘अथातः संप्रवक्ष्यामि-शक्ति-न्यासं सुरेश्वरि
येन देहेन युक्तेन-शक्ति तुल्यो भवेन्नरः।
येनांग न्यास मात्रेण-देवी दहति तेन च
कोपं यत्कुरूते योगी- त्रैलोकस्यापि पातनम्।
शक्ति-न्यास युतो योगी-नमस्कारेण शंकरः
स्फोटनं कुरूते साक्षात्-पाषाण प्रतिमादिषु।’
(हे पार्वती! शक्ति-न्यास करने वाले साधक की देह परमशक्तिशाली हो जाती है। यह साधक यदि क्रोधित हो जाये तो तीनों लोकों का पातन कर सकता है। शक्ति-न्यास सम्पन्न महायोगी को भगवान शंकर भी नमस्कार करते हैं। ऐसा साधक पाषाण-प्रतिमाओं का भी विखन्डन कर सकता है।)
भगवान शिव पुनः कहते है-
‘न क्षान्ति परमंज्ञानं-न शान्ति परमं सुखं
नच शक्ति समों न्यासों-न विद्या त्रैपुरी समा’
(हे पार्वती! क्षान्ति के समान महाज्ञान नहीं। शान्ति के समान परमसुख नहीं। शक्ति-न्यास के समान कोई न्यास नहीं तथा त्रिपुरसुन्दरी के समान कोई महाविद्या नहीं है)
पुनश्च-
‘शक्ति न्यासे कृते जीवेत्-यः कश्चिच्छेदको भवेत्
कर्मणा मनसा वाचा-तस्य घातो भविष्यति।’
(पे पार्वती! यदि कोई शत्रु शक्ति-न्यास करने वाले साधक को क्षति पहुचांने का प्रयास करता है तो उसका विनाश हो जाता है)
महाशक्ति-न्यास का अभ्यास करते समय साधक ऐं कार का चिन्तन करते हुए महाकामकला को ब्रह्मरंध्र में लय करके अ से क्ष तक के मातृकावर्णों से अपने शरीर के 51 अंगों में न्यास करता है।
विभिन्न मंत्रों का स्मरण-पाठ करके तथा महामंत्र एवं महादेवी की महिमा का गुणगान करते हुए वह अपने शरीर को बज्रमय बनाने एवं अपनी मनोकामना पूर्ति हेतु महाशक्ति से प्रार्थना करता है। पुनः त्रिपुरा की त्रयोदश विद्याओं का पूजन करने के पश्चात् साधक पंचोपचारों से स्वशरीर की पूजा करके कंठ में रक्तपुष्पों की मालाधारण करकेउत्तराभिमुख होकर तथा महायोगी का रूप धारण कर भगवान शंकर तुल्य हो जाता है यथा-
‘देहं स्वपूजये देवि-रक्तचन्दन कुंकुमे
पूजयेन्मस्तके देवी-कृत्वा विग्रहधूपकम्
उत्तराभिमुखो भूत्वा-स्वस्थ चित्तासने स्थिंतः
महाकामकलाध्याये-दिव्याम्वर विभूषितः’
ऐसी दिव्य त्रिपुरामय देह में वह वनिताक्षोभकरी
महाकामकला का ध्यान करके न्यासानुसन्धान पूर्व ‘शक्तिरूद्रमयं देंह’ से प्रारम्भ कर ‘गेहे कुर्वन्तु में वपुः’ तक के 102 श्लोकों को पढ़ता हुआ विभिन्न शक्तियों तथा योगिनियों से अपने शरीर के विभिन्न अंगों तथा मस्तक में स्थित हो जाने तथा अभीष्ट वरदान देने के लिए प्रार्थना करता है ताकि उसकी देह शक्ति-रूद्रमय बन जाये यथा।-
‘शक्ति-रूद्रमयं देंह- मदीयं त्रिपुरेकुरू
देहि मे देव देवेशि! बरंनित्य अभीप्सितम्’।।
आप लोग श्रीविद्या में शिव का स्मरण करते हैं , परंतु शिव जी के वाक्यों पर विश्वास नही ? । शिव जी यह सारी बातें सोच समझकर ही दी होगी। मनुष्य को शॉर्टकट से साधना करके कल्याण करने की इच्छा है , परंतु साधना गलत मार्ग से लेने पर कुछ हासिल नही हो पाता । प्रत्यक्ष गुरु ही मार्ग दिखता है ।
इस लेख की यही समाप्ति होती है ।
आगे हम श्रीविद्या के अंतर्गत अन्य अनेक विषयों का अभ्यास करेंगे ।
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