Sri Vidya – Trancending Animal Instinct (पशुभाव से आरोहण) 1

Sri Vidya – Trancending Animal Instinct (पशुभाव से आरोहण) 1

◆ श्रीविद्या साधना अंतर्गत पशुभाव से आरोहण ◆
भाग : १

मेरे शरीरधारी गुरु तथा मेरे पराजगत के गुरु श्रीमहावतार बाबाजी को प्रणाम , करके उनकी प्रेरणा से ये महत्वपूर्ण ज्ञान आपतक पहुचा रहा हूँ ।

क्या आप विश्व की सबसे पवित्र साधना ‘ श्रीविद्या ‘ की दीक्षा ले रहे हैं? अथवा दीक्षा आपने ले ली है ?
पर आपके मन तथा स्वाभाविक गुणों में वो भाव आया ?

वास्तविक जीवन में आप इस पवित्र विद्या की साधना करने पर किस रूप से रहते हैं?

ऐसे प्रश्न एक श्रीविद्या साधक के मन में उठने चाहिए।
क्योंकि श्रीविद्या एक परिपूर्ण संस्कार है। घर मे श्रीयंत्र होना और श्रीयंत्र के फोटो लगाना , गुरुओ के फोटो लगाकर नामजाप करना इससे , असली शुद्ध श्रीविद्या भाव निर्माण नही होता।

इसमे ओर एक सवाल उठता है ।
क्या आप श्रीविद्या साधक है , तो आप अपनी स्त्री(पत्नी) सन्मान दे पाते है?

अनेक साधक इसी सवाल पर फेल हो जाते हैं।
कई सारे श्रीविद्या साधक अपने पत्नी को मान नही दे पाते , उसके मन को समझ नहीं पाते , परिवारिक कुछ कारणों से पत्नी पर गुस्सा भी होते हैं ।

उन साधको की श्रीविद्या यही पर भ्रष्ट हो जाती है।

श्रीललिता का एक अंश स्त्री में भी सूक्ष्म रूप से है , पहले उसे पूजना सीखो ।

श्रीविद्या सिखाने वाला गुरु ….. पराशक्ति श्रीललिता परमेश्वरी का ज्ञान , साधक के पत्नी में समाई उस स्त्रीशक्ति से ही शुरू करता है ओर अंत में विश्व परमसत्ता रूप में दृष्टिक्षेप करवाता है।
यही असली श्रीविद्या गुरु की एक पहचान है।

ऐसा भी देखा जाता है कि कुछ श्रीविद्या शिबिरो में जो हजारो लोग आते है , उसमे कुछ वृद्ध महिलाओं को उनके बहुए जबरदस्ती भेजती है , कुछ तो वहिपर सो जाते हैं।
कितना मूर्ख होंगे वे गुरु जो कुछ पैसे-प्रसिद्धि के लिए देवी को भ्रष्ट करते हैं। अब गुरु में ही पशुभाव है तो शिष्य कैसे होंगे , यही दिखाई देता है।

श्रीविद्या साधना में गुरु का हर एक शिष्य पर
व्यक्तिगत ध्यान देना चाहिए।

श्रीविद्या अंतर्गत ” पशुभाव ” क्या है , उसकी बारकाई से अभ्यास करें । जबतक भाव नही तबतक देवता वहाँ सिद्ध नही होती।

पशूनां प्रथमं भावं वीरस्य विरभावनं ।
दिव्यानां दिव्यभावस्तु तिस्त्रो भावास्त्रय: स्मृता: ।।

जिन मनुष्यो के हृदय में अविद्या की घनतम छाया होने के कारण अद्वैतात्मक ज्ञान का स्वल्पअवभास कभी नहीं होता, उनकी मानसिक अवस्था तामसिक मानी जाती है और यही अवस्था पशुभाव है।
इसमे भी दो भाव है , उत्तम ओर मध्यम ।
द्वैता के कारण ये दो पशु ही है।

कोई भी साधक को किस भाव में रखना है वह भाव स्पष्ट करता है , अतः साधना में तीन भाव बतलाए गए हैं।
दिव्यभाव वीरभाव पशुभाव , सात्विक राजसिक तामसिक ई। पशुभाव को इसमे निष्कृट माना गया है।

यदि आप साधना में निष्‍क्रिय हो तब तो ठीक है कि तुम गहन रिक्‍तता में, आंतरिक गहराइयों में उतर जाओ।

लेकिन तुम सारा दिन रिक्‍त नहीं हो सकते और सारा दिन क्रिया शून्‍य नहीं हो सकते। तुम्‍हें कुछ तो करना ही पड़ेगा। सक्रिय होना एक मूल आवश्‍यकता है।
अन्‍यथा तुम जीवित नहीं रह सकते। जीवन का अर्थ ही है सक्रियता। तो तुम कुछ घंटों के लिए तो निष्‍क्रिय हो सकते हो। लेकिन चौबीस घंटे में बाकी समय तुम्‍हें सक्रिय रहना पड़ेगा।

यही सक्रियता , साधक के जीवन मे पशुभाव में ही कायम न रहे , अतः उससे दिव्यभाव भी आना चाहिए ।

साधना और ध्‍यान तुम्‍हारे जीवन की शैली होनी चाहिए। उसका एक हिस्‍सा नहीं।

अन्‍यथा पाकर भी तुम उसे खो दोगे। यदि एक घंटे के लिए साधना ध्यान में तुम निष्‍क्रिय हो , 5 घण्टे नींद में निष्क्रिय हो , तो बाकी घंटे के लिए तुम सक्रिय होगे। सक्रिय शक्‍तियां अधिक होंगी और निष्‍क्रिय में जो तुम भी पाओगे वे उसे नष्‍ट कर दोंगे ।
सक्रिय शक्‍तियां उसे नष्‍ट कर देंगी। और अगला दिन तुम फिर वही करोगे: तेईस घंटे तुम कर्ता को इकट्ठा करते रहोगे और एक घंटे के लिए तुम्‍हें उसे छोड़ना पड़ेगा। यह कठिन होगा। …… पशुभाव से आरोहण के लिए इसे सीखना होगा ।

श्रीविद्या साधक को इसी कार्य और कृत्‍य के प्रति दृष्‍टिकोण बदलना होगा।

इसीलिए यह दूसरी विधि है।
कार्य को खेल समझना चाहिए, कार्य नहीं। कार्य को लीला की तरह, एक खेल की तरह लेना चाहिए।
इसके प्रति तुम्‍हें गंभीर नहीं होना चाहिए। बस ऐसे ही जैसे बच्‍चे खेलते है। यह निष्‍प्रयोजन है। कुछ भी पाना नहीं है। बस कृत्‍य का ही आनंद लेना है।

पशुभाव से आरोहण जरूरी है ।

मेरे शरीरधारी गुरु तथा मेरे पराजगत के गुरु श्रीमहावतार बाबाजी को प्रणाम , करके उनकी प्रेरणा से ये महत्वपूर्ण ज्ञान आपतक पहुचा रहा हूँ

साधनाओ में सात आचार है ।
वेदाचार वैष्णवाचार शैवाचार दक्षिणाचार वामाचार सिद्धान्ताचार कुलाचार ….. पहले चार जो है वह पशुभाव के साधक को लिए है।
अगले दो वीरभाव साधको के लिए , तथा अंतिम दिव्यभाव वाले साधको के लिए ।

आपके मन में सवाल आएगा इन सातों आचारों का श्रीविद्या के साथ क्या संबध है ।

पहले अपने मन से एक भ्रम निकाले की , किसी साधक ने ललिता की फ़ोटो लगाई श्रीयंत्र रखा , गुरु से दीक्षा लेली फिर श्रीविद्या साधक हुआ ।
यह तो गम्भीर मूर्खता है । श्रीविद्या साधक को एक लंबी प्रोसेस से निकलना पड़ता है ।

आप डॉ है या वकील या इंजीनियर , क्या एक दिन में पढ़ाई कर ये पद प्राप्त किया ? श्रीविद्या तो इससे भी बड़ी विस्तार वाली है । एक एक तत्व को खड़ा करने में जी तोड़ मेहनत लगती है । और गुरु के साथ निकटता का सनिध्य ।

श्रीविद्या अंतर्गत ‘ पशुभाव ‘ …… ओर उससे ऊपर उठ ” पशुपति ” बनना , इस क्रिया को साध्य करना है ।

इसके विषय मे शिवपुराण में कहा गया है , ” पशुभाव ” वाला व्यक्ति सहज भाव से मुलवेगजन्य प्रतिक्रिया करता है। उसे कोई गाली देगा तो वह गाली देगा और हाथ मारो तो पलटकर वार करेगा ।
श्री विद्या साधना के अंतर्गत ऐसे व्यक्ति का पुंसत्व उसके परिवेश ने कुचल डाला हो वह ऐसी पशु भाव वाली क्रिया नही करेंगा।

कृष्‍ण का यही अर्थ है जब वे अर्जुन को कहते है कि भविष्‍य परमात्‍मा के हाथ में छोड़ दे। तेरे कर्मों का फल परमात्‍मा के हाथ में है, तू तो बस कर्म कर।
यही सहज कृत्‍य लीला बन जाता है। यही समझने में अर्जुन को कठिनाई होती है, क्‍योंकि वह सोचता है कि यदि यह सब लीला ही है।…… तो हत्‍या क्‍यों करें? युद्ध क्‍यों करें? ……
यह समझ सकता है कि कार्य क्‍या है, पर वह यह नहीं समझ सकता कि लीला क्‍या है। और कृष्‍ण का पूरा जीवन ही एक लीला है।

आप कृष्ण जैसा इतना गैर-गंभीर व्‍यक्‍ति कहीं नहीं ढूंढ सकते। उनका पूरा जीवन ही एक लीला है, एक खेल है, एक अभिनय है।
वे सब चीजों का आनंद ले रहे है।
लेकिन उनके प्रति गंभीर नहीं है।
वे सघनता से सब चीजों का आनंद ले रहे है। पर परिणाम के विषय में बिलकुल भी चिंतित नहीं है। जो होगा वह असंगत है।

अर्जुन के लिए कृष्‍ण को समझना कठिन है।
क्‍योंकि वह हिसाब लगाता है, वह परिणाम की भाषा में सोचता है।

वह गीता के आरंभ में कहता है, ‘यह सब असार लगता है। दोनों और मेरे मित्र तथा संबंधी लड़ रहे है। कोई भी जीते, नुकसान ही होगा क्‍योंकि मेरा परिवार मेरे संबंधी, मेरे मित्र ही नष्‍ट होंगे।

यदि मैं जीत भी जाऊं तो भी कोई अर्थ नहीं होगा। क्‍योंकि अपनी विजय मैं किसे दिखलाऊंगा?

विजय का अर्थ ही तभी होता है, जब मित्र,संबंधी, परिजन उसका आनंद लें।

लेकिन कोई भी न होगा,केवल लाशों के ऊपर विजय होगी।
कौन उसकी प्रशंसा करेगा।
कौन कहेगा कि अर्जुन, तुमने बड़ा काम किया है।

मनुष्य भी साधना में ज्यादातर व्यवहार ही देखता है । मुझे इतनी साधना से देवी माँ क्यों प्रसन्न नही हुई ? ये भी व्यवहार है । …… क्या देवी माँ ने आपके साथ कोई कॉन्ट्रेक्ट किया है ? … जो किसीको पंचदशी मंत्र अथवा अनेको स्तोत्र के उच्चारण के बाद आपके पास अवतरित हो ।

वो आ भी सकती है , पर अपने आपको बदलो ।

पशुभाव से दिव्यभाव की ओर चलो ।

कुछ जगहों में श्रीविद्या साधको के ग्रुप दिखाई देते हैं । प्रथम श्रीविद्या साधक को जरूरी है की वह अपना स्वभाव आचरण देखे , दूसरा कोई साधक मुझसे अच्छा भोजन लोगो को दे रहा है या सुविधा दे रहा है , इससे जलन पैदा होने वाला व्यक्ति श्रीविद्या साधक नही होता।

गुरु ने दिए हुए गलत नियमो का अनुसरण करके अपना मूल अच्छा स्वभाव भी खो बैठते है ।
देखा जाता है की ऐसे ग्रुप में आने वाले महिला श्रीविद्या साधक अपने सुंदरता पर ध्यान अधिक देते है और दूसरी साधक महिला ओ पर उनका लक्ष्य रहता है ।
क्या यह साधना है ? इसे वास्तविक पशुभाव कहते हैं।
श्रीविद्या में पहले आंतरिक आरोहण जरूरी है ।

कुब्जिका तंत्र में लिखा है कि जो रात को यंत्रस्पर्श और मंत्र का जप नहीं करते, जिन्हें बलिदान में संशय, तंत्र में संदेह और मंत्र में अक्षरबुद्धि (अर्थात् ये अक्षर हैं इनसे क्या होगा) और प्रतिमा में शिलाज्ञान रहता है, जो बार बार नहाया करते हैं उन्हें पशुभावावालंबी और अधम समझना चाहिए।

श्रीविद्या साधक को अपने बुद्धि-मन के भाव को प्राणी रूप पशु भाव से ऊपर उठने की चेष्टा करनी चाहिए।

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