||●|| श्रीमहिषासुरमर्दिनी स्तोत्र ||●|| Part 1

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||●|| श्रीमहिषासुरमर्दिनी स्तोत्र ||●|| Part 1

श्री लिंगमाश्रीतायै नमः ।।
नमस्ते मित्रो , हम श्रीविद्या सञ्जीवन साधना पीठम , ठाणे से नई जानकारी देने की कोशिश करते हैं । वेसे ही आज हम हमारे पीठ में जो श्रीविद्या साधक है उनके कहने पर महिषासुरमर्दिनीस्तोत्र की वैज्ञानिक व्याख्या beyond the science क्या है बताने की कोशिश करेंगे ।
आप लोग महिषासुरमर्दिनीस्तोत्र जानते ही होंगे ।
उसमे आज पहला श्लोक लेते हैं ।
” महिषासुरमर्दिनीस्तोत्र ”
श्लोक १

अयि गिरिनन्दिनि नन्दितमेदिनि विश्वविनोदिनि नन्दिनुते
गिरिवरविन्ध्यशिरोsधिवासिनि विष्णुविलासिनि जिष्णुनुते ।

भावार्थ
महिषासुर का वध करने वाली भगवती का स्तवन करने वाले इस ‘महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम्’ के पहले श्लोक में  वार्ता है कि , हे अयी हे गिरिपुत्री, विश्व को अपने चैतन्य से प्रफुल्लित करने वाली, संसार का मन मुदित रखने वाली, श्रीविद्या उपासक श्रीनंदी नमस्कृत, विंध्याचल के सबसे ऊंचे शिखर पर निवास करने वाली, विष्णु को आनंद देने वाली …………..  तुम्हारी जय हो, जय हो ।

व्याख्या : ” अयी ” का अर्थ
अब मित्रो स्तुतिकार ने यह स्तोत्र बनाते वक्त कितनी तीव्र बुद्धि का उपयोग किया है देखिए ।
अयी से शुरुआत की गई है ।
अयी क्या है ? कभी सोचा है ? अयी का मतलब श्रीविद्या साधना में गुरु समझाता है ।
श्रीविद्या की शुरुआत ही समझो अयी से हुई , अगर ” अयी ” नही होती तो दत्तात्रेय जी परशुरामजी का नाम श्रीविद्या साधना से जोड़ा नही जाता और हम तक पहुचा भी नहीं जाता ।
” अयी ” शब्द ने ही हमे श्रीललिता के भंडासुर का वध की कथा बताई ।
अयी शब्द को गुरु से उसकी पहचान किए बिना शुरुआत ही नहीं होती ।
बहुत जगहों पर अयी शब्द का विश्लेषण ही नहीं दिया है ।
आज हम हमारी श्रीविद्या गुरु परंपरा से इसे आपके सामने खोल रहे हैं ।
श्रीदत्तात्रेय श्रीपरशुरामजी का पहला संवाद जिसने लिखा वो परशुरामजी का शिष्य सुमेधा था , उसने त्रिपुरा रहस्य ग्रंथ लिखा तब लिखते वक्त उसकी याददाश्त चली गई ।
तब नारद जी के कहने पर श्रीब्रह्माजी ने प्रगट होकर उसे उसका पूर्वजन्म बताया ।
उसमे वह सुमेधा एक गरीब ब्राम्हण का पुत्र था जो अपनी माता को अयी अयी कहके पुकारता था ।
अयी का मूल मतलब है ” ऐं ” बीजाक्षर , छोटा बालक होने के कारण अपने पिता के मंत्रो को सुनकर वो ऐं का उच्चारण अयी करता था ।
अयी शब्द के बार बार उच्चरण से उसे उस जन्म में बुद्धि तो उत्तम प्राप्त हुई , परन्तु अगले जन्म में वो सुमेधा बना तब वह अशुद्ध उच्चारण का श्राप उसे लगा , जिससे कि वे त्रिपुरा रहस्य ग्रंथ न लिख पाए ।
बाद में श्रीपरशुरामजी ने पहली श्रीविद्या की श्रीबाला साधना देकर बाला देवी ने उसके श्राप का निराकरण कर दिया ।
तो मित्रो ये ” अयी ” शब्द की मूल हकीकत है ।

इससे आपको ये तो समझ आया होगा कि आए कितने लोग कुंजिका , सप्तशती , खडगमला , महामृत्युंजय , संजीवनी , पंचदशी अथवा अन्य मंत्रो का गलत उच्चरण करते हैं ।
परिणाम स्वरूप उसके श्राप भी भुगतने पड़ते हैं ।
प्रकृति अथवा नियती शक्तियो का अपमान सहन नहीं करती , भले गलती की सजा अभी न मिले ।
गलत बीजाक्षरों के उच्चारण अगले जन्मों में बुद्धिभ्रंश अथवा अन्य विकार पीड़ित बना सकते हैं । इसलिए सही मार्गदर्शक से एकबार स्तोत्र को उनके सामने समझकर ले ।

व्याख्या ; ” गिरिनंदिनि ” अर्थ
अब गिरिनंदिनि शब्द क्या है ? गिरी में सूक्ष्म ” ई ” बीजाक्षर है । संस्कृत के व्याकरण में ईकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों में संबोधन की (आठवीं) विभक्तिमें ‘ई’ का ‘इ’ हो जाता है, यह ” ई ” बीज सहस्रार चक्र का बीज है यह आपको कुण्डलिनी साधना में बताया ही होगा ।
क्योंकि सहस्रार में ” ह्रीं ” होता है , ह्रीं में ई बीज समाहित है ।
” ई ” बीज एक विश्वयोनी है ।
श्रीविद्या साधना में श्रीयंत्र के अंतिम त्रिकोण में ये अर्धनारीश्वर के रूप में कैसे कार्य करती है , गुरु बताता है ।
हे गिरिजा अर्थात् गिरिपुत्री , इस प्रकार से ।

व्याख्या : ” मेदिनी ” अर्थ
मेदिनी अर्थात् पृथ्वी को नंदित यानि आनंदित करने वाली, संसार का मन मुदित रखने वाली अर्थात् विश्व में सब का मन विनोदित रखने वाली ।
मेदिनी को मोदिनी भी कह सकते हैं ।
मोदिनी देवी की ” वशिनी ” आदि वाग्वादिनी मंडल की एक देवता है ।
श्रीयंत्र की नवावर्ण पूजन श्रीदत्तात्रेय परंपरा से होता तब उसमे यह आती है ।
श्रीविद्या के विज्ञान में इसे मोदन करना करना कहते हैं ।
आनंद से पूर्व प्रफुल्लित करने वाली सूक्ष्म क्रिया कह सकते हैं ।

व्याख्या : ” नंदिनुते ” अर्थ
अब इसे नंदी द्वारा नमस्कृत कहा गया है ।
नंदी भी श्रीविद्या साधक उपासक थे , कहा जाता है भगवान शिव जी ने अत्यंत प्रसन्न होकर उन्हें ये विद्या प्रदान की , उनकी विद्या को नंदी श्रीविद्या कहते हैं । इसी विद्या द्वारा मूल आदिशक्ति को उनोने आभास किया ।

व्याख्या : ” विंध्यवासिनी ” अर्थ
आगे कहा है कि , पर्वतप्रवर विन्ध्याचल के सबसे ऊंचे शिखर पर निवास करने वाली, विष्णु को आनंद देने वाली, आनंद का अर्थ हास्य नही , बल्कि विलासनी अर्थात माया रूपी एक अनेकानेक संतोषप्रद जो आनंद होता है , वह है ।
जिष्णु शब्द इंद्र को अभिप्रेत है । देवता जब युद्ध में पराक्रम करते हैं , तब उनके पराक्रम की शक्ति जो है उसको पूजित भाव से प्रगट करने हेतु जिष्णुनुते शब्द का प्रयोग है ।

मित्रों , आपने आजके सत्संग से क्या सीखा ?
१) ” अयी ” शब्द का अर्थ ।
सबसे पहले हमने इस ब्लॉग पर बताया है ।
२) ” ई ” बीज विश्वयोनी कैसे है और किसी भी शक्ति
साधना में अपने गुरु से इसे कैसे समझके लेना है ।
ई ही श्रीयंत्र का बिंदु है ।
३) नंदी ने श्रीविद्या सीखी , पर स्वार्थ के लिए नहीं सीखी
। आज बहुत लोग श्रीविद्या को स्वार्थ के लिए सीखते
हैं । और बिना सही क्रम लेते हैं । इसलिए नंदी जैसे
एक पवित्र आत्मा बनने के लिए साधना भी सही हो ।
४) विंध्यवासिनी के अर्थ से आपने समझा की साधक की
अपनी आत्मा जो पर्वत के ऊपर है , वह आत्म शक्ति
समझने के लिए गुरु कितनी आवश्यकता है ।

मित्रों , आपको शक्ति और बढ़िया स्वरूप से समझने के लिए हमारे ब्लॉग पर श्रीविद्या साधना के पाच सत्संग सुन सकते हैं ।
सत्संगों से आपका आत्मा भी ऊपर उठेंगी और संकल्प से सत्संग करने से भौतिक दुःख भी कम होगा ।

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