अनादि निधनं ब्रम्ह शब्दमक्षर संज्ञीतम ।
या – अनादि निधनं ब्रम्ह शब्दतत्वं यदक्षरं ।।
……. अर्थात वर्ण को ब्रम्ह कहा गया है।
शब्दब्रह्ममयी स्वच्छा देवी त्रिपुरसुंदरी ।।
……. भगवती स्वयं शब्दब्रह्म है।
या सा तू मातृका लोके परतेज: समन्विता ।
तया व्याप्तमिदं सर्वं आब्रम्हभुवनात्मकं ।।
…….. मातृकावर्ण परमतेज से समन्वित है और उन्होंने आब्रम्ह भुवन पर्यंत सभी को व्याप्त करके रखा है।
इन पुरातन श्लोको से मातृकावर्ण की महत्तता आप समझ गए होंगे।
श्रीविद्या अंतर्गत मातृका न्यास और भूत शुद्धि महत्वपूर्ण है। तन्त्र में ‘मातृका न्यास’ का महत्त्व सर्वाधिक है। इन्ही वर्णों को सिर से पाँव तक , पाँव से सिर तक क्रमानुसार नियोजित करके शरीर के विभिन्न जगह न्यास किया जाता है।
न्यास का अर्थ शक्ति को न्यस्त करना है।
श्रीविद्या में मातृकावर्ण में आंतर ओर बहिर ऐसे दो प्रकार है। मातृकावर्णों (अ से अः तक तथा क से क्ष तक = 51 वर्ण) का विभिन्न प्रकार से प्रयोग किया जाता है। विभिन्न मातृकावर्णो में कहीं पर विसर्ग, कहीं पर अनुस्वार तथा कहीं पर इन दोनों का एक साथ प्रयोग करके न्यास करने का विधान है। विभिन्न क्रमों से न्यास करके साधक की मनोकामनाऐं पूर्ण होती है तथा वह देवताओं के लिए भी पूजनीय बन जाता है।
उदाहरण स्वरूप : अं नमः , आं नमः , इं नमः ई. रूप , कुछ जगह ॐ अं कं खं गं घँ ङ अंगुष्ठाभ्यां नमः।। इस रूप में ई .
आंतर मातृका न्यास में षट्चक्रों पर न्यास होते है , बहिर मातृका न्यास में पाँचो उंगलियों से संपूर्ण शरीर को स्पर्श होता है । इसीमे एक संहार मातृका न्यास है । इनमें चार प्रकार है , केवल अक्षर – सबिन्दु अक्षर – सविसर्ग अक्षर – बिंदु विसर्ग युक्त अक्षर ।
इसमें अपने लक्ष्य अथवा कामना अनुसार बीजो को बीजो से जोड़ा जाता है । जैसे कि वाकसिद्धि ऐं , श्रीवृद्धि श्रीं ई रूप में ।
बाह्य मातृका न्यास का अंत ॐ लं नमः , ॐ क्षं नमः से होता है , सँहारन्यास में इसके विपरीत चलना होता है।
मातृकावर्ण न्यास के ज्ञान को थोड़ा बहुत आप समझे होंगे । अब थोड़ी श्रीविद्या अंतर्गत इसकी गुप्त ज्ञान के विषय मे देते हैं। खड़गमाला का पाठ करते वक़्त वशिनी मोदिनी विमले अरुणे जयिनी ई वाग्देवता को आवाहन करते है , तथा ललिता सहस्रनाम मे भी शुरुआत में वशिनीदी वाग्देवता ऋषयः ई है ।
इनकी शक्ति समाहित है इन 51 मातृका ओ में । श्रीललिता की ये देवियां है , वाग्देवता का अंग रूप ही 51 वर्ण है। ये सभी वाग्देवता एक हो जाती है तभी श्रीललिता परमेश्वरी का शरीरअंग बनता है।
इसी मातृकावर्ण को हमे शरीर मे न्यासित कर हमारे देह को भी ललिता स्वरूप बनाना पड़ता है। सूक्ष्म अद्वैत श्रीविद्या में भी इन्ही वाग्देवता को एक करके सूक्ष्म अणुओं के साथ वाग्देवता की शक्ति से जोड़ पराजगत में श्रीललिता के देह की रचना साधक कर सकता है।
श्रीविद्या अंतर्गत श्रीयंत्र का आम्नाय पद्धति नुसार भेदन अथवा पूजन होता है। तब न्यासविद्या के द्वारा साधक शरीर – श्रीयंत्र – श्रीललिता की मूर्ति इन तीनो में एकत्व लाना पड़ता है। इसमें तीनो को न्यास देने पड़ते हैं। त्रिकोणीय ऊर्जा निर्माण की जाती है।
सामान्य रूप से जिन वर्णमातृकाओं का चलन-क्रम है , उन्हें मातृकासिद्धा अथवा पूर्णमालिनी के नाम से भी जाना जाता है। इससे भी विलक्षण है उत्तरमालिनी क्रम , जिसकी अधिष्ठात्री मालिनीशक्ति देवता हैं। मातृका को अभिन्न योनि ओर मालिनी को भिन्न योनि कहा है।
मातृका ही क्षोभ्य है और क्षोभकतावेश से मालिनी बन जाती है। मालिनी वर्ण में ‘न’ से प्रारंभ होकर ‘फ़’ पर समाप्ती होती है। जैसे की , न ऋ ऋ lru lrun थ च ध ई न उ ऊ ब क ख ग घ ड़ इ अ व भ य …..ओ द फ़ .. तक । ये मालिनी मातृका , क्रमिक मातृकावर्ण से अलग है ।
एक स्वतंत्र मातृका वर्ण की स्वयं की सिद्धि है। उदाहरण : 51 बीजाक्षर में खरी नामकी एक मातृका है । इसका उल्लेख महाभारत अंतर्गत शाल्वय पर्व में आता हैं। ये शत्रुओ का संहार करने वाली तथा कुमार कार्तिकेय की अनुचारी है।
आज विज्ञान कहता है कि सूरज की हर किरण प्रिज्म में से निकलकर सात हिस्सों में टूट जाती है, सात रंगों में बंट जाती है। वेद का ऋषि कहता है कि सूरज के सात घोड़े हैं, सात रंग के घोड़े हैं। अब यह पैरेबल की भाषा है। सूरज की किरण सात रंगों में टूटती है, सूरज के सात घोड़े हैं, सात रंग के घोड़े हैं, उन पर सूरज सवार है। अब यह कहानी की भाषा है। इसको किसी दिन हमें समझना पड़े कि यह पुराण की भाषा है, यह विज्ञान की भाषा है। लेकिन इन दोनों में गलती क्या है? इसमें कठिनाई क्या है? यह ऐसे भी समझी जा सकती है। इसमें कोई अड़चन नहीं है।
कहने का तातपर्य यह है की , आजके विज्ञान को कई हजार साल पहले ही लिखा गया था , जो आज वैज्ञानिक प्रूव कर रहे हैं । और श्रीविद्या साधक भी जो श्रीविद्या के विज्ञान की बाते करते है वो सब बच्चों जैसी बातें हैं , ओरिजिनल मूल श्रीविद्या का विज्ञान को लेने की कोशिश ही नहीं करते । ध्यान में श्रीयंत्र की कल्पना करना और तुमारा शरीर वास्तविक एक देवशरीर बनना दोनों में अंतर है । तुम्हे देव शरीर बनकर श्रीयंत्र में प्रवेश लेना होगा , अन्यथा श्रीयंत्र की पूजा अथवा साधना इसके बिना होती ही नहीं ।
न्यासविद्या तुम्हे वो देव शरीर प्रधान करता है ।
मानो ये ऐसा है की , तुम पत्थर तोड़ने के लिए जा रहे हो पर तुमारे बाजुओं में ताकद ही नहीं , तुम बस नाटक कर रहे हो और पत्थर को अथवा हथोड़े को दोष दे रहे हो । हथोड़ा और पत्थर एकदम सही है , तुम अपना दोष देखो । ………..……. वैसे ही श्रीविद्या में आजके साधको के साथ हो रहा है , श्रीयंत्र सामने रखे है और बड़े बड़े यंत्रों के फ़ोटो भी लगाए है , आप उसकी पूजा करते हो पंचदशी के मंत्रो से ….. पर इतने सालों से होता कुछ नहीं , मतलब आपके बाजुओं में जोर नही अर्थात आपके शरीर मे वो दिव्यत्व नहीं । ……… अगर दिव्यत्व ही नही फिर आप श्रीयंत्र के ऊपर बंदिश लगाई है उसको कैसे भेदोंगे ? क्योंकि श्रीयंत्र एक डेड अस्त्र है , उसे जागृत करने के लिए कई अन्य छोटे छोटे अस्त्रों के जरिये अंदर प्रवेश करना पड़ता हैं ।
आपको लग रहा है कि गुरु आएगा आपको सबकुछ देंगा सबकुछ बताएंगा , पर ये सब भ्रम है । मेरे पास ही दस पन्द्रह साल से श्रीविद्या पंचदशी का जाप करने वाले लोग आते हैं , इतने सालों बाद अनुभव पूछने पर सिर्फ एक ही जवाब होता है …. हवा में तैरना , प्रकाश दिखना , मुंडी अथवा कमर से गोल गोल हिलना , चिल्लाना , अलग आवाज निकालना अथवा कोई व्यक्ति सामने आए तो उसके मन के विचारों को महसूस करना ….. बस ! इसे ही श्रीविद्या कहते हैं । सही गुरु न मिलने पर लोगो की क्या हालत होती हैं , इससे समझ आता है , बल्कि ये सारे अनुभव श्रीविद्या साधना के न होकर आपकी शरीर के अंदर छुपी हुई शक्ति ऊर्जा ही आपको दिख रही हैं , बल्कि ये आधे अधूरे ही अनुभव है इसको समाप्त करने पर आगे जो रखा है वो तो इससे भी दिव्य है । अनेको दिव्यत्माओ के दर्शन , ऊपरी जगत के गुरु के मार्गदर्शन , ज्ञान का प्रस्फुटन होना , आपके दिव्य शरीर से बाकी लोगो मे चैतन्य आएगा ।
ये सब न्यासविद्या का चमत्कार है ।
इसके विषय मे अलग लेख लिखा जाएगा । यहाँ सिर्फ न्यास की जानकारी ले लिए यह अंग लिया है।
न्यासविद्या पिन्ड-ब्रह्मान्ड की ऐक्यता तथा शिवत्व प्राप्त करना है। जब साधक अपने शिर से चरण पर्यन्त शरीर के विभिन्न अंगों (प्रमुख अंग 51 हैं) पर समस्त मातृकावर्णों, विभिन्न देवी-देवताओं, महायोगिनियों, अष्ट-भैरवों, समस्त शक्तिपीठों, महासागरों, पवित्र नदियों, विभिन्न पर्वतों, पवित्र धामों, सप्तद्वीपों, चतुर्दशभुवनों, ग्रहों, नक्षत्रों तथा राशियों को प्रतिष्ठापित कर लेता है तो उसका शरीर ही देवता का निवास स्थान बन जाता है और साधक के मन में स्वतः ही देवत्व का भाव उत्पन्न हो जाता है।
इन न्यासों से वह ब्रहमान्ड में विद्यमान समस्त नियंत्रक शक्तियों को अपने पिन्ड में ही अवस्थित देखता हुआ ‘यथा पिन्डे तथा ब्रह्मान्डे’ का आभास करता है। इन न्यासों से वह शिव बनकर शिवा की पूजा करने की योग्यता प्राप्त कर लेता है।
‘शिवों भूत्वा शिवां यजेत्’ तथा ‘देहों देवालयः साक्षात्’।
कुछ श्रीविद्या शिबिरो में इसका अलग तरीका सिखाया जाता है। मूलतः इसका ज्ञान ही नहीं दिया जाता।
श्रीविद्या घोर-अघोर-घोरतर भी है। जब आप श्रीविद्या साधना अथवा कोई भी दसमहाविद्या ओ की साधना करते हैं , तब इसका विशेष ध्यान रखे। अन्यथा आप मंत्र जाप रटन तो करते रहेंगे पर उसमे जाप के रटन से निकली अघोरी शक्तियाँ साधक का मानसिक संतुलन बिगाड़ती है। सामन्यतः श्रीविद्या साधना में गलत गुरुओ से साधना लेने के कारण कुछ संस्थाओं में बहुत सारे साधक मानसिक रूप से अस्वस्थ दिखते है।
इसलिए न्यास-जाल रूपी अभेद्य कवच धारण किया हुआ साधक ही ऐसी साधना करने का प्रयास करें।
‘कोटि सूर्य प्रतीकाशां-चन्द्र कोटि सुशीतलां’
‘उद्यत्कोटि दिवाकर द्युतिनिभां’
(वह करोड़ों सूर्यो के समान प्रकाशमान तथा करोड़ों चन्द्रमाओं के समान शीतल है)
महाशक्ति के ऐसे परमतेजोमय स्वरूप के दर्शन वही साधक कर सकता है जिसने न्यासानुसन्धान करके अपने शरीर को बज्रमय बनाया होता है ।
क्योंकि सामान्य शरीर तो करोड़ों मील दूर स्थित सूर्य के ताप से क्षण भर में ही झुलस जाता है। इसका प्रमाण श्री भगवद्गीता के उस प्रसंग से भी मिल जाता है जब शिवोपासक, कपिध्वज तथा श्रीकृष्ण सखा अर्जुन श्रीकृष्ण के विराट् स्वरूप को देखते ही अपनी सुध-बुध गंवा बैठे थे।
कुछ श्रीविद्या साधक इस महत्व की गहराई नही समझते। कई लोगो ने गलत गुरु के संगत में श्रीविद्या साधना में कितने धन और समय गवाया ओर कुछ हासिल न हुआ । इससे अच्छा नगूरा रहना था ।
‘‘न्यासप्रिया तु श्रीविद्या’’
श्रीविद्या की उपासना में न्यासों का महत्वपूर्ण स्थान है तथा अन्य महाविद्याओं के न्यासों की तुलना में सर्वाधिक न्यास इसी विद्या के उपासक द्वारा किए जाते हैं। इस विद्या के प्रमुख न्यास हैं- वशिन्यादि-न्यास, पंचदशी-न्यास, नवयोन्यात्मक-न्यास, तत्व-न्यास, मूलमंत्र-न्यास, योगिनी-न्यास, गणेश न्यास , त्रिपुरा-न्यास,नित्या-न्यास, चक्र-न्यास, काम-रति न्यास तथा आयुध-न्यास।
श्री विद्या का साधक अपनी देह को बज्रवत् बनाने (दिव्यतेज सहन करने योग्य) तथा स्वयं देवतुल्य बनने के लिए जिन अन्य विशिष्ट न्यासों का अभ्यास करता है उनके नाम हैं – लघुषोढा-न्यास, महाषोढा-न्यास तथा महाशक्ति-न्यास।
लघुषोढ़ा न्यास-
इस न्यास के अन्तर्ग छः न्यास सम्मिलित हैं। यथा गणेश-न्यास, ग्रह-न्यास, नक्षत्र-न्यास, योगिनी-न्यास, राशि-न्यास तथा पीठ-न्यास शरीर के 51 अंगों को स्पर्श करके तथा अन्य-न्यास शरीर के उन अंगों को स्पर्श करते हुए विभिन्न मुद्राओं के साथ किए जाते हें जहां पर ग्रहों, नक्षत्रों आदि की स्थिति मानी गई है।
इस न्यास के ऋषी श्रीदक्षिणामूर्ति है। गणेश जी के 51नामों की प्रतिष्ठा शरीर पर की जाती है , इसे गणेशपीठ भी कहते हैं। उसके बाद , नवग्रहपीठ , 27 नक्षत्रपीठ की स्थापना , सप्तचक्रों में समाहित डाकिनी आदि योगिनियों की स्थापना , 12 राशिपीठ तथा भारत मे स्थापित 51 शक्तिपीठो की स्थापना इस न्यास पद्धति में की जाती है। इसमें वाराणसी नेपाल पौंड्र पुरस्थित कश्मीर पूर्णशैल अर्बुद आम्रात त्रिस्त्रोत जालन्धर मालवाय देवीकोट राजगोह जयन्तिका ई. पीठ है।
अतः अत्यंत अत्यंत महत्वपूर्ण यह लघु शोढा न्यास विधान श्रीविद्या अंतर्गत है।
हमारी श्रीविद्या पीठ में पंचदशी दीक्षा के समय एक ही साधक को चार दिन देकर , श्रीविद्या में आवश्यक सभी विषयों के ज्ञान दिए जाते । गुरु शिष्य की संगत जरूरी है , क्योंकि मंत्र दीक्षा देने से काम नही करते बल्कि महाविद्या ओ मंत्र गुरु की संगत की ऊर्जा से काम करते हैं । इसका मूल न समझने के कारण ही अनेक लोग जो बिना गुरु से पहचान किए पंचदशी दीक्षाए लेते है वो बाद सिर्फ मंत्र का जाप तो करते हैं पर हासिल कुछ नहीं होता ।
श्रीविद्या में सच्ची साधना होती तो देवियों की अनुचरी शक्तियाँ आपके पास आकर बाते करती , उनकी बैंगल्स चुनरी घुंघरू ओ की आवाजें आती , आपके ऐसे दृष्टांत होते की अतिंद्रिय शक्तियाँ खुल जाती है , आप पवित्र आत्माओं से बात करके और आत्माए आपको ज्ञान भी देती है , आप अलग अलग अनुचरी रूप शक्तियो के मेले देख सकते हैं । बहुत कुछ अनुभव कर सकते हैं ।
जरूरी है , डर निकालकर सही गुरु चुने श्रीविद्या साधना में , हमारे You tube चॅनल पर SriVidya Sanjivan Sadhna Pitham , चॅनल पर आदिशंकराचार्य की सौन्दर्यलाहिरी के ऊपर श्रीविद्या की मूल दीक्षा पर सत्संग है , उसे पढ़िए ।
स्वतः शिवजी कुलार्णव तंत्र में कहते कि , जो श्रीविद्या गुरु अत्यंत पवित्र श्रीविद्या के आम्नाय और गुरूपादुका का महत्व शिष्यो को नही बताता वो गुरु और उसके शिष्य भी चांडाल योनि में जन्म लेकर , शापित बन जाते हैं ।
इसलिए , श्रीविद्या में सही रूप से ज्ञान साधना का अर्जन करिए । कुलार्णव तँत्र , सांख्यायन तंत्र पढ़िए , सौन्दर्यलाहिरी पढ़िए ।
|| Sri Matre Namah ||
Contact us to learn Sri Vidya Sadhna: 09860395985
Subscribe to our Youtube Channel !!
Join us on Facebook !!