◆ श्रीविद्या अंतर्गत सौंदर्यलाहिरी ” उच्छिष्ट ब्रम्ह “◆
भाग : १
बहुत लोगो को यह नाम नया होगा ।
अथर्व वेद में इस विषय का उल्लेख है ।
ब्रम्हांड की रचना करने के बाद जो शक्ति का अंश शेष रहता है , वह आण्विक रूप लेने के लिए कुण्डलिनी के रूप मूलाधार चक्र में निद्रिस्थ हो जाती है । उसे हम सर्प कहते हैं । इसे ही अथर्ववेद में उच्छिष्ट ब्रम्ह कहा है ।
उसे ही पुराणों में विष्णु भगवान की शैय्या यानी शेष कहा है , जिसे अनंत भी कहते हैं।
यही शेष शक्ति अर्थात उच्छिष्ट ब्रम्ह की , ब्रम्हांड को धारण करने की क्षमता रखता है ।
मानो अपने हजारो फणों पर ब्रम्हांड टिका हुआ है ।
तीन बातें समझ लेनी जरूरी है। आत्मा का तत्व एक है। उस आत्मा के तत्व के संबंध में आकर दो तरह के शरीर सक्रिय होते है। एक सूक्ष्म शरीर, और एक स्थूल शरीर। स्थूल शरीर से हम परिचित है, सूक्ष्म से योगी परिचित होता है। और योग के भी जो ऊपर उठ जाते है, वे उससे परिचित होते है जो आत्मा है। सामान्य आंखे देख पाती है इस शरीर को। योग-दृष्टि, ध्यान देख पाता है, सूक्ष्म शरीर को। लेकिन ध्यानातित, बियॉंड योग, सूक्ष्म के भी पार, उसके भी आगे जो शेष रह जाता है, उसका तो समाधि में अनुभव होता है। ध्यान से भी जब व्यक्ति ऊपर उठ जाता है। तो समाधि फलित होती है। और उस समाधि में जो अनुभव होता है, वह परमात्मा का अनुभव है। साधारण मनुष्य का अनुभव शरीर का अनुभव है, साधारण योगी का अनुभव सूक्ष्म शरीर का अनुभव है, परम योगी का अनुभव परमात्मा का अनुभव है।
इसे कहना जरूरी है , क्योंकि श्रीविद्या में कुण्डलिनी चक्रों का फैड आजकल ज्यादा हो रहा है । मूल विषय की समझ न रखकर , कई लोग बेसिक चीजो को ही अनुभती मानकर रहते हैं ।
कुछ ऐसे लोग है , जिन्हें ध्यान में प्रकाश दिखाई देता है , आँखे खोली तो भी प्रकाश दिखाई देता है , अलग अलग रंग दिखाई देंगे , किसीके मन में क्या चल रहा है यह भी समझ आता है । इन सबको कुछ लोग अनुभूति मानते हैं , परन्तु अगर कुडंलिनी विज्ञान ठीक से देखे तो इसमे कोई सायन्स नही है और इसे कुण्डलिनी जागरन भी नही कहते ।
बल्कि आप जो इस घड़ी तक जो क्रिया कर रहे थे , उससे त्वचा के ऊपर का मल थोड़ा दूर हो गया , त्वचा का मल बना है खून-मानसिक जड़ता जिसे वासना कहते हैं , कर्म की इच्छाओं से , वीर्य जिसमे हमारे परिवार का इतिहास छुपा है …. ऐसे बहुत सारे विषयो को लेकर मल बना हुआ है । जो मनुष्य शरीर के रेडियो लहरों की तरंगों को रोककर रखती है अथवा दबा देती हैं । उसे आप सिर्फ जगा रहे है , मल साफ करके ।
पर यह तो आगे बढ़ने के लिए बेसिक शुरुआत है ।
कांच के नीचे दिया लगा दिया है पर कांच पर मिट्टी डाल दी गई , प्रकाश ठीक से नही दिखेंगा । मिट्टी हटा दो , फिर जितनी मिट्टी हटाएंगे उतना प्रकाश फैलने लगेंगा ।
कुछ बात समझी ?
यहाँपर कई लोग श्रीविद्या में मेडिटेशन करते है , प्राणायाम की क्रिया करते हैं , ऊपरी ऊपरी अनुभूति से गुजरते है पर मूल सत्य नही समझ पाते । गुरु भी नहीं बताएंगा , इसका मूल सत्य । क्योंकि , ये अनुभव शिष्य का नष्ट हुआ और उसके पीछे का सत्य समझ आया तो गुरु का धंदा चौपट होगा ।
श्रीविद्या की ध्यानिय क्रिया में स्थूल शरीर से सूक्ष्म जगत की ओर जाने की क्रियाए अलग है ।
यह अनुभव तभी हो सकेगा जब श्रीविद्या में छोटी छोटी अनुभूतियो को नष्ट करना पड़ता है ।
जैसे सभी पर्वतों वनों को धारण करने वाले लोकों का आधार शेषनाग अहिराट है । वैसे ही सब योग तंत्रों का आधार कुण्डलिनी शक्ति है ।
पिंड शरीर की रचना के बाद जो शक्ति बच जाती है , वो मुलाधार में शरीर को धारण किए हुए प्रसुप्तवत पड़ी रहती हैं । इसलिए उसे आधारशक्ति भी कहा जाता हैं ।
श्रीविद्या में हम साधना करने बैठते हैं तो पहले
।। ॐ आधारशक्ति कमलासनाय नमः ।। कहकर आसान यानी मुलाधार की पूजा होती हैं ।
यही सुप्त शक्ति जागकर प्रतिप्रसव करना आरंभ करती हैं ।
इस विषय में अगले लेख में चर्चा करेंगे ।
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